17/12/07

अप्पन समाचार

बिहार के बहुत से गांवों में आज तक बिजली नहीं पहुंची है... लेकिन लोग समाचारों से रुबरु रहते हैं... गांवों में केबल कनेक्शन नहीं है पर गांव का अपना चैनल जरूर है... ये बातें सुनने में भले आपको अटपटी सी लगें पर बिहार के एक गांव में चार लड़कियां मिलकर गांव का चैनल चलाती हैं औऱ उस चैनल का नाम है अप्पन समाचार... देश में खबरिया चैनल बढ़ते जा रहे हैं... एक औऱ चैनल लांच हुआ है... बिहार के एक गांव में एक ऐसे गांव में जहां न बिजली हैं औऱ न ही लोग टीवी चैनलों के ज्यादा मायने समझते हैं... गांव वाले अगर कभी कभार टीवी देख भी लेते हैं... तो शिकायत रहती है कि नेशनल चैनल उनके गांव की सुध नहीं लेते... पर इसी गांव की चार लड़कियां मिली औऱ शुरु कर दिया एक चैनल... गांव का अपना चैनल... बिहार के एक छोटे से गांव का अप्पन समाचार एक मिशन लेकर उतरा है... औऱ मिशन है अशिक्षा औऱ बुरी प्रथाएं दूर करना औऱ इस चैनल की स्टोरी भी इसी तरह के सब्जेक्ट पर रहती हैं... गांव के ही एक छोटे से घर के एक छोटे से कमरे से चलता है अप्पन समाचार... यानी अपना समाचार... रोज सवेरे चैनल को चलाने वाली चार लड़कियां अप्पन समाचार के लिये खबरें ढूंढने निकलती हैं... कभी साइकिल पर तो कभी पैदल... छोटे से गांव की इन लड़कियों के हाथ में ट्राईपोर्ट औऱ हैण्डीकैम अब गांव वालों को अजीब नहीं लगते... छोटे से गांव की अपनी खबरें दिखाता है अप्पन चैनल... इनकी साइकिल की बास्केट के आगे लिखा है प्रेस औऱ उसी में रहता है अप्पन समाचार का माइक... इसी पहचान के साथ इन लड़कियों ने कम्युनिटी रेडियो की तर्ज पर गांव का अपना चैनल शुरु किया है...खबरें जुटा लेने के बाद शुरु होता है उनका पोस्ट प्रोडक्शन... ये लड़कियां एक जगह बैठकर खबरों की कॉपी लिखती हैं... उन्हें अंतिम रुप देती हैं औऱ बुलेटिन तैयार करती हैं... और उसके बाद शुरु होती है एंकरिंग... जिसके लिये इन लड़कियों में काफी क्रेज रहता है... हालांकि गांव में बिजली नहीं है... पर ये लड़कियां प्रोजेक्टर के सहारे अपनी खबरों को बाजार और चौपाल पर लोगों को दिखाती हैं...

16/12/07

न्यूजरूम...

न्यूजरूम
मजमा लगता है हर रोज़,
सवेरे से,
खबरों की मज़ार पर
और टूट पड़ते हैं गिद्दों के माफिक
हम...हर लाश पर
और कभी...
ठंडी सुबह...
उदास चेहरे,
कुहरे में कांपते होंठ-हाथ-पांव,
और दो मिनट की फुर्सत...
काटने दौड़ती है आजकल
अब शरीर गवाही नहीं देता सुस्ती की...
न दिन में और न रात में...
जरूरी नहीं रहे दोस्त...
दुश्मन...
अपने...
बहुत अपने
ज्यादा खास हो गयी है
फूटी आंख न सुहाने वाली
टेलीफोन की वो घंटी...
जो नींद लगने से पहले उठाती है...
और खुद को दो चार गालियां देकर...
फिर चल पड़ता हूं...
चीड़ फाड़ करने...
न्यूजरुम में...

24/10/07

...ले आऊं एक जोड़ी सांस









कभी कभी बनना पड़ता है
सख्त दिल...
इतना सख्त
कि घुटने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं...
इतना सख्त…
कि सब पैबन्द, पैबस्त हो जाते हैं
अपने आप...
कभी कभी
जब अतीत के पंख लगे दिन
जंजीर बनकर गर्म गर्म
तपाते रहते हैं...
कभी कभी
कुछ समझदारियां
जिंदगी की सबसे बड़ी भूल लगने लगती हैं...
तब खूब घुटने का दिल करता है...
पर यार इस तमन्ना पर भी
बड़ा होने का अहसास
तमाचा मार जाता है...
वो नासमझियां क्यों पीछे छोड़ दी मैंने...?
क्यों हो गया हूं इतना बड़ा
कि सब छूट गया
बहुत पीछे...
कभी कभी
दिल करता है
कि झुककर उठा लूं सब जो बिखर गया है...
दिल करता है
कि चूम लू एक एक किरच
और फिर जोड़ लूं...
और ले आऊं एक जोड़ी सांस
पुरानी वाली...
पर सब रास्ते बंद कर लिये हैं मैंने...
इतने सख्त,
कि अब घुट भी नहीं पाता
सांस लेकर....

देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’

4/7/07

बडे़ भाई की ब्लोगर मीट

भाई साहब हम पत्रकारों की जात ही ऐसी होती है कि पाँच सितारा होटलों में भी मान मनौब्बत करवाकर ही पहुँचते हैं। पर इस बार बिन बुलाये भी पहुँच गये थे। मनीष भाई रांची वाले, रांची से दिल्ली पधारे थे।मनीष जी के संस्मरण तो खूब पढे थे, पर पहली बार उनके पीछे का स्टिंग हाथ लगा। मैंने स्कूप ढूँढ लिया कि मनीष जी इतने यात्रा टाइप संस्मरण इसलिये लिख लेते हैं क्योंकि उन्हैं स्टील अथॉरिटी ऑफ इण्डिया की मैनेजरी प्राप्त है। सुगबुगाहट थीं कि बहुत जल्दी 'मेरा दिल्ली संस्मरण' भी मनीष जी लिख ही डालेंगे। खैर जैसे मनीष जी का 'सेल' हर किसी की जिंदगी से जुडा है, वैसे उन्होंने भी दिल्ली के ब्लोगर दोस्तों से मिलने की ठानी, कुछ नारदीय रॉ एजेण्टों को विशेष रिक्रूट किया गया पता लगाने को कि दिल्ली के ब्लोगर कहाँ कहाँ अण्डरग्राउण्ड हैं? साहब खोद खोद कर फुनियाये गये। पर हमारा नसीब कहें या अति सतर्कता हमारे नोकिया 1110 तक एक भी घन्टी नहीं आई। पर इसमें मनीष जी की गलती भी कहाँ है? वो दिल्ली के ब्लोगरों से मिलना चाह रहे थे, पर विश्व के सर्वश्रेष्ठ कवि/पत्रकार/ब्लोगर यानी मैंने पैदा लेने का जुर्म तो आगरा में किया था, सो हम तो हुऐ 'आगरी'। फिर मनीष जी की देहलवी थीम पर कैसे फिट बैठ पाते? पर आजकल हम दिल्ली गेट से लाल किले और मूलचंद से पालम के फ्लाईओवरो पर झक मार रहे थे सो संगीतकार मित्र सजीव सारथी जी ने जबरन हमें भी घसीट लिया।

(चित्र में बायें से शैलेश भारतवासी,सजीव सारथी, देवेश खबरी यानि मैं खुद :), , अमित गुप्ता, मनीष ,अरुण अरोड़ा,जगदीश भाटिया

खैर, होटल पार्क में हुई ब्लोगर मैत्री मीट में हमने एकमात्र बिन बुलाऐ मेहमान का एक्सक्लूसिव फर्ज अदा किया। पर ज्यादा मजा तो तब आया जब हर इतवार 'हिन्द युग्म' पर कविता के स्तर को बनाये रखने की सख्त हिदायत देकर पुचकारने वाले युग्मेश्वर शैलेष भारतवासी जी पहने से ही एक्सक्लूसिव की जुगाड़मेंट में बैठे थे। उस दिन मैं नबाबी-पत्रकारी-झोला छाप स्टाइल में था,गालों पर फ्रेन्च कट, बदन पर झनझना लाल कुर्ता और जूट का थैला। बिल्कुल 1947 की लव स्टोरीज की बीट पर काम करने वाले पत्रकार के माफिक। यकीन मानिये इस पहनावे का इतना असर हुआ कि मनीष जी ने तुरंत एक मात्र अलग रखी कुर्सी मेरी तरफ खिसका दी। अब तक मेरी नजर पंगेबाज पर नहीं गयी थी, पिछली ब्लोगर मीट (मैथली जी वाली) में अरुण जी और अविनाश जी का फोटो एक साथ मैंने ही खींचा था, सो डर लगना स्वाभाविक था। जी नजरें मिलीं दुअ सलाम हुई और मैंने कुर्सी थोडी खिसकाकर 'अमित जी' के पास कर ली। अमित जी के पास चूँकि पावर ऑफ अटॅर्नी है एसे में किसी भी पंगे से मुझे वही बचा सकते थे। खैर जब तक पंगेबाज मैदान में रहे मेरे बोल नहीं फूटे। उनके साथ मैथली जी भी थे। जिनके बस इतने ही शब्द मैं सभी के लिये कट-कॉपी-पेस्ट की तरह सुन सका-
"अरे! आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।"
खैर जनाब पंगेबाज जी का पंगे का वक्त हो गया था और मैथली जी का नयी खोजों का। सो दोंनों जल्दी चले गये। मैंने सोचा चलो जान बची, पर असली तो अब अटकी थी। उस दिन अमित जी और मनीष जी के साथ मिलकर पत्रकारों से आहत जगदीश भाटिया जी की तिकडी के बीच मुझे अपना पत्रकार बताना महँगा पड गया। फिर क्या क्या हुआ अगली बार बताऊँगा।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

20/6/07

फिर उठा,लडखडाया,उड़ गया।


परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
गिर गया।
आसमान ने धक्का मारा,
धरती ने जंजीर डाल दी।
पखेरू भी उड़ गये साथ के।
पंछी नवेला,
बैठा अकेला।
गुमसुम,
चुपचाप,
पसीना,
घुटन,
कांप
सारी रात रोया,
चिल्लाया,
डरा,
म्यांउ की हर घुडकी पर
कई कई बार मरा।
पैरों में खो गया
पागल सा हो गया।
जंजीर बहुत गर्म हो गई,
जलाने लगी,
प्यास लगी,
भूख कलेजे तक आने लगी,
सब उम्मीद मिट गईं,
सब अरमान खो गए।
सारे सपने जैसे नींद में सो गए।
उसे आकाश नहीं मिला
और धरती भी नहीं बची
कुछ बोने को,
पर अब क्या बचा था
खोने को?
परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
उड़ गया।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

7/6/07

फिर बचेगा क्या......?


सोचता हूँ,
खुरच कर मिटा दूँ
उस रात के निशां,
अपने जिस्म से।
हटा दूँ सारे पैबंद,
तेरे नाम के-
अपनी हर कविता से।
तोड दूँ वो हर कडी,
जो भेज देती है वहीं।
अब छोड भी दूँ तेरा साथ
तेरे जाने के बाद।
एक वो सादा सा चेहरा,
जी तलक जो जा छिपा है,
सोचता हूँ ढूँढ लाऊँ,
और दरवाजे चढा दूँ।
सोचता हूँ अब फैंक भी दूँ
बाल जो उलझे पडे़ हैं,
कंघी में ।
कुछ चूडियों के टुकडे
संभाले बैठा हूँ अब तक।
तुम्हैं याद है, जब जोर से
मैंने तुम्हारी कलाई पकडी थी।
इतनी जोर से कि....
और वो गुड्डा तुम्हारा...
मेरे पास है,
वो कॉफी का कप,
वो बिस्किट का रैपर,
तेरी छुई हर चीज मेरे पास है।
सोचता हूँ, सब हटा दूँ।
पर फिर बचेगा क्या......?
'देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
(दिल्ली)

5/6/07

मैनें कुछ नहीं छोडा है तुम्हारे लिये।


नंदीग्राम में फिर फाइरिंग हुई है!
वहाँ के किसान उपद्रवी हैं
उनका पेशा अलग है आज से।
पंजाब में खून खराबा हो सकता है,
आखिर धर्म की इज्जत का सवाल है।
असम में भी मारे गये हैं कुछ लोग आज,
वो हिन्दी बोलते थे।
राजस्थान सुलग रहा है.....।
......आज दिल्ली बंद है।
दो बस जला दी गयी हैं सवेरे-सवेरे,
दो आदमी भी चौराहे पर....
दो पुलिस वाले..
दो गुज्जर..
दो मीणा..
दो ब्राह्मण..
दो जाट..
दो हिन्दी भाषी..
दो.
दो..
दो...
सब माँग रहे हैं कुछ-कुछ।
किसी को जमीन चाहिये,
किसी को सत्ता,
किसी को नौकरी,
और किसी को रोटी।
हर चीज मिलेगी।
रूस की क्रांति की तरह,
जब मर जायेगी आधे से ज्यादा आबादी
महान होकर...क्रांति के नाम पर।
फिर सब मरघट आबाद हो जाऐंगें।
वहाँ किसी की दुनाली,
किसी की लाठी,
किसी के फरसे,
और कहीं कहीं बिना गले में लटकाये कुछ टायर जलाए जायेंगे।
तब मिटेंगें ये हथियार,
ये वार।
ऐ मेरी अगली पीढी,
माफ कर देना मुझे।
मैं जल्द मर जाऊँगा,
किसी न किसी आंदोलन की खातिर।
बिना कुछ किये तुम्हारे लिये।
पर तुम्हें नई दुनिया बनानी है।
जहाँ सब इंसान रहना,
तब मुझे याद मत करना मेरे बेटे।
भुला देना मेरी हर बात,
याद,
इतिहास,
मुझे याद करोगे तो याद आयेगी
मेरी जात... मेरी औकात...17%,... 27%....
या फिर मुझे सामान्य करार देना।
मेरी हर तलवार का हिसाब लेना।
फिर गालियाँ देना मुझे,
थूकना मेरे चित्र पर,
दशहरे पर जलाना मेरा पुतला।
पर जला देना सारी नफरत, मेरे साथ।
कुछ मत रखना संजोकर विरासत में,
क्योंकि मैनें कुछ नहीं छोडा है तुम्हारे लिये।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

26/5/07

चोरी करनी है!






यार कोई तरक़ीब बता
तरक़ीब बता,
पच्चीस पैसे की जुगाड़ की।
वो वाले पच्चीस पैसे,
जिसकी चार संतरे वाली गोलियाँ आती थीं।
तरक़ीब बता,
चोरी करनी है!
अपने ही घर में कटोरी भर अनाज की...।
आज सपने में भोंपू वाली बर्फ़ बिकी थी!
मुझे 'पीछे देखो मार खाई' वाले खेल
दोबारा खेलने हैं...
जानी-अनजानी गोदों को,
अंकल,आण्टी,चाचा, ताई,मौसी,
दीदी,मामा,नाना,दादा,दादी कहना है।
यार क्या इतना बड़ा हो गया हूँ,
कि रोज़ काम पर जाना पड़ेगा?
ट्यूशन वाले मास्टर जी का काम नहीं किया है,
' आज फिर पेट दर्द का बहाना बना लूँ॰॰॰'?
ये रोज़-रोज़ के प्रीतिभोज बेस्वादे हैं।
अगली रामनवमी का इंतज़ार करूँगा।
खूब घरों में जाऊँगा 'लांगुरा' बनकर।
खूब पैसे मिलेंगे तब...
शाकालाका वाली पेंसिल खरीदकर
चिढाऊँगा दोस्तों को।
वो 'जवान' है,
नज़रें चुरा लेती है।
चल उससे बचपन वाली होली खेलते हैं,
यार चल कुछ 'सद्दा' लूटें॰॰
मुझे पतंग उड़ानी है॰॰॰॰।
9811852336

10/5/07

शायद मर गया हूँ मैं।


गुम गया हूँ मैं,

मिट गये हैं-

अतीत के चलचित्र।

धुँधले अक्स,

बातें,

यादें,

पीङाऐं।

गुम गयीं हैं सारी स्मृतियाँ,

और गुम हो गया है भविष्य भी,

तुम्हारे साथ,

गुम गया हूँ मैं।

अब कल्पना नहीं है,

न समय है,

न आकाश।

कुछ नहीं बचा है मेरे लिये।

खो दिया है सब कुछ ।

अब हाथ पैर नहीं पटकता,

किसी चमकी को देखकर,

चीखता नहीं हूँ चोट खाकर,

चुप हो गया हूँ मैं।

शायद मर गया हूँ मैं।

आ लगा हूँ निर्जन द्वीप पर,

पर वहाँ तुम रहते हो।

होठों के पार...

इस बार तुम ज्यादा पास हो,

भीतर तक...

बिल्कुल सक्रिय।

मैं समाधि में हूँ....।

श्श्श्श....... तुम भी गुम जाओ,

मेरे साथ।

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

9410173698

6/5/07

यहाँ हिन्दू मुसलमान रहते हैं! 'आबाद'...


एक हिन्दू ने

एक आदमी मार दिया...,

एक मुसलमान ने

उसकी बीबी की इज्जत लूटी...,

... मजे से,

किसी ने नहीं रोका।

फिर दोंनों ने मिलकर

उसका घर जला दिया...।

कुछ और आदमी थे उस मोहल्ले मैं,

मार दिये गये...

अब वहाँ बस,

हिन्दू मुसलमान रहते हैं...

...आबाद!!


देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

9410361798

5/5/07

ऐ मेरे मालिक, मुझे एक रबर दे दे,

ऐ मेरे मालिक,
मुझे तू ऐसी रबर दे दे,
जिससे इस पन्ने पर उकरी
कुछ तिरछी रेखाऔं को हटा सकूँ।
भेद मिटा सकूँ,
सफेदपोश कोरे कागज को
सही राह दिखा सकूँ।
यहाँ वहाँ को एक बना सकूँ,
माटी के खिलौनौं को
टूटने से बचा सकूँ।
गुल खिला सकूँ,
दिल मिला सकूँ
ऐ मेरे मालिक
तू मुझे वो दिल दे दे,
जिससे किसी के काम आ सकूँ,
उसके मन की नफरत से झलकते प्यार को
बाहर ला सकूँ।
भाई को भाई से मिला सकूँ,
गा सकूँ, गवा सकूँ
हँस सकूँ, हँसा सकूँ।
ऐ मेरे खुदा
तू मुझे ऐसी मुहब्बत दे दे
गैरों को अपना बना सकूँ,
दुश्मनी मिटा सकूँ,
दोस्त बना सकूँ।
जहर को भी पचा सकूँ,
राम और रहीम के
और पास आ सकूँ।
ऐ मेरे खुदा
तू भले मुझे कुछ मत दे,
पर थोडी इंसानियत दे दे,
जिससे एक जानवर को
फिर से इंसान बना सकूँ,
..... मैं किसी के काम आ सकूँ।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

30/4/07

कहाँ रुके हैं बढे कदम।


बढे कदम, उठे कदम,

पदचिन्हों पर चले कदम।

कही अनकही एक कहानी,

चुपके से कह चले कदम।


चकमक मंजिल देख भ्रमित हो,

आशाओं ने छले कदम

ठोकर लगी जाम से झलके,

उपमानों से भले कदम।


पन्नों पर काजल सी रेखा,

भावों के नभ तले कदम।

सब रुक जाऐं भले जहाँ में,

कहाँ रुके हैं बढे कदम।

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

9410361798

28/4/07

चल यार आज बेबात हँसें!

चल यार आज बेबात हँसें,
कोई बात चले इससे पहले।
आ तुझको आखों में भर लूँ,
घर को उड़ने से पहले।
चल यार दोबारा उसी जगह,
बेठें बिल्कुल अनजानों से,
चल कर लें फिर से वही हाल,
अपने अपने दीवानों से।
फिर तुम कहना कुछ,
कुछ मैं कह दूँ,
सब लोग कहैं इससे पहले।
चल यार आज बेबात हँसें,
कोई बात चले इससे पहले।
चल यार वहीं पर, उन्हीं दिनों ,
जब थी खुश तू भी, खुश मैं भी।
हर बात तेरी थी तब भारी,
हर बात मेरी थी तब वजनी।
मैं तुझको कुछ था, कुछ तू मुझको,
सब कुछ बनने से पहले,
चल यार आज बेबात हँसें,
कोई बात चले इससे पहले।
चल बैठ वहीं देखूगाँ तुझको,
चोरी चोरी चुपके चुपके।
फिर करना वो बातें मेरी,
अपनी उसी सहेली से।
चल फिर से इकरार करें
हम वैसे ही चोरी चोरी।
आ तुझको यादों में भर लूँ,
घर को उड़ने से पहले।
चल यार आज बेबात हँसें,
कोई बात चले इससे पहले।

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

4/4/07

मेरे खेत की तहजीब।

दिल्ली की कभी ना रूकने वाली और मुंबई की कभी ना झुकने वाली जींदगी के बीच एक और सभ्यता-संस्कृति है। वहाँ कहीं भोग के पेडों का निराला स्वाद है तो कहीं पेठे की कई रंगों में मिठास। बडी भागम-भाग तो यहाँ नहीं है पर अब सुकून भी छिन गया है। जी मैं दौरा कर रहा हूँ ब्रज की तहजीब का ।
ब्रज , यानी मथुरा,वृंदावन, आगरा और भरतपुर। ब्रज, यानि कान्हा का आँगन!वो संस्कृति जहाँ घरों से ज्यादा मंदिर हैं आर लोगों से ज्यादा रिश्ते। पुराना भारत अभी सिमटा जरूर है पर आज भी गालिब, नजीर और ताज के माहौल में जिंदा है।यहाँ मुशायरों पर भी खूब भीड जमती है और अब जरीवाला के लटकों का भी लडकपन कायल है। लडकियों को घर से बाहर भेजा जाने लगा है पर अभी नजर रखी जाती है। इतिहास बिखरा पडा है। कान्हा की यशोदा ने जितने नाम उसके नहीं रखे होंगे उससे ज्यादा नामों के अवशेष यहाँ वहाँ खूब हैं। छाछ दूध की अब भी कमी नहीं है पर अब बच्चों को कोक ज्यादा पसंद है। कैरियर की फिक्र से इनके माथे पर भी सलवटें आ जाती हैं, पर धूँए के छल्लों ने ज्यादा देर टेंशन में न रहना इन्हें सिखा दिया है। यमुना को माँ कहते हैं, पूजा करते हैं आचमनी भी ले लेते हैं पर कचरा मलवा और गन्दगी फेकने में भी गुरेज नहीं करते। पेडे की मिठास बरकरार है, पर पेठे की मिठाई थोडी कडवी हो गयी है। आगरा दिल्ली बनने की कोशिश में है।सुनने में आया है कि मेट्रोज़ में शुमार हो गया है।सुबह-सुबह ट्रेफिक की लाल बत्ती को अगूँठा दिखाते ये नौजवान एक मोटर-साइकिल पर कम से कम तीन की विषम संख्या में सुबह आई॰ऐ॰एस की कोचिंग जाते हैं और फिर हर शाम तेरे नाम। पेठ और पेडे़ के शहरों का इतिहास सुर्ख और गुलाबी मोहब्बत ने लिखा है। एक ओर राधा-कृष्ण की पूजा होती है तो दूसरी ओर शाहजहाँ-मुमताज का सफेद पाक मकबरा दूर दूर के सैलानियों से कहता है कि 'मोहब्बत ऐसे करते हैं'। पर अभी खुले आम मोहब्बत पर बंदिशें हैं, प्रेमियों को यहाँ कोई ठौर नसीब नहीं है। झाडियों में छिपते हैं तो बदनसीब पुलिसिया डंडा पाँच के नोट की ख्वाहिश में उन्हैं इश्क नहीं करने देता, और कहीं वैलेन्टाइन पर गुलाब देने का मन बना लिया, तो बजरंग दल और शिवसेना के हर माह मनोनीत होने वाले नेता उन्हें जीने नहीं देते। अभी सुबह-सुबह उठकर माँ-बाप के पैर छूने की परंपरा कहीं कहीं बची है पर उन्हीं को मारकर संगीन उठाने वाले भी चंबल की आबादी बढा रहे हैं।यहाँ टूटे नाले, उखडे खरंजे और खुले सीवर नगरपालिका में अर्जी देने से नहीं, जाम लगाने से दुरूस्त होते हैं। यहाँ के लोगों को ये रास्ते बखूबी पता चल गये हैं इसलिये ट्रांसफार्मर फुंकने की शिकायतें सीधे प्रधानमंत्री के नाम ग्यापन लिख कर की जाती हैं और उसके प्रेस नोटिस हर शाम आखबारी दप्तरों में पहुँचा दिये जाते हैं।यमुना किनारे तक कॉलोनियाँ बन गयीं हैं,और अब फ्लाईओवर भी बनने लगे हैं,पर ताज के सामने पत्थरों का ठेर लगाकर सरकार को बनाने और गिराने का खेल भी यहीं से चला है।लोग अब कुर्ता-धोती छोड चुके हैं, पेंट शर्ट से भी तौबा करने लगे हैं, लूज ट्रेंडी ट्राउजर और वी गले की टी-शर्ट बदन पर दिखने लगी हैं। जिमखाने सुबह-शाम भरे रहते हैं और फूले सीनों के साथ आखों पर चढा मासनस दो का चश्मा बताता है कि हम लोग सेहत का तो खयाल रखते हैं पर पढाई का भी। खैर अब सब मॉर्डनाइज्ड हो रहा है। पुरानी तहजीब धीरे-धीरे दम तोड रही है , पर नयी हवाऔं में सास लेने की आदत ये दाल चुके हैं।आखिर ब्रज विकसित हो रहा है।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
09410381798

31/3/07

अब तो डर भी नहीं

तुझसे जब मेरी कोई बात चलती है,

तू मुझे मुझसे भी बेहतर समझती है!

.............................................................

दर्द ओ गम पर,मैं मरहम लगाता गया।

तू सुनती रही,गुनगुनाता गया।

मुझको नाजुक सी खुशियाँ,हमेशा से थीं.

मैं ही उन पर, परदे लगाता गया।

चूमकर जो चखा,तेरे नूर को,

जितना तैरा मैं उतना समाता गया।

तेरी दौलत, मुहब्बत की बरसात है।

मुस्कुराते लवों पर क्या बात है ?

मुझको कह दे,जो कुछ है दिल में चला।

कहीं फिर ये मौसम,चला जाये ना।

मेरी हर छुअन,अब अमानत तेरी,

पास आ करवटों में समाता गया।

इस उनींदी पलक में है कोई बसा,

मुस्कुराहट में भी होता है नशा।

ये बातें, ये रातें,बडी हैं नयी,

अब तो डर भी नहीं खोने का कहीं,

बिन कहे मैं कहानी सुनाता गया।

तू सुनती रही,गुनगुनाता गया।

.................................
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

9410361798

30/3/07

......श्री कृष्णम् समर्पयामी।


मैं,
मेरी सोच,

मेरे खयाल,
जीया हुआ हर दिन,
काटे गये महीने,
और बितायी हर साल।
हर हद तक गया अनुराग,
परिपक्वता,
और फिर चुंबक के एक से छोरों सा वैराग।
मेरा सारा आलस, सारे काम,
मेरे से टूटा और जुङा हर नाम,
कूट-कूट कर भरे व्यसन, वासना, दुर्विचार,
मेरा अहंकार,
हर दिन की जीत ,
हर रोज़ की हार,
मेरा प्रेम,
समर्पण,
मेरा जुङाव और भटकाव,
टूटन, तडपन खुद का चिंतन,
कंठ तक भरा रीतापन,
मजे में डूबी हर एक बात,
मुझे उठाने और गिराने मैं लगे सैंकङों हाथ,
उसकी नफरत, मेरा प्यार,
हर अनुभव, हर चोट, हर मार,
सारी प्राप्तियाँ, सारे आनंद, सारे सुकून,
मुझसे जुडा हर काला, सफेद, तोतई और मरुन,
मेरी सारी ताकत,
सारी खामी,
.....श्री कृष्णम् समर्पयामी।
देवेश वशिष्ठ ' खबरी '

9410361798

कहाँ सांझ है ?कहाँ सवेरा ?

चुप है मन,
थकियारा तन,
चुपचाप चला जाता जीवन॰॰
कम होता है,
धीरे-धीरे
साँसों का चलता घर्षण।

कैसा सुख?
फिर कैसा दुःख ?
उदासीनता का आँचल।
कहाँ सांझ है ?
कहाँ सवेरा ?
आ बैठा है अस्ताचल।

चलता हूँ,
रुक जाता हूँ,
मुडकर देखूँ क्या पीछे... ?
शायद कोई छूट गया है,
मिटकर भावों के नीचे।

लेकिन दिखता नहीं कहीं कुछ,
दूर-दूर तक उडती धूल,
चेहरा मेरा खिला कहाँ है?
कहाँ खिले दिल में
दो शूल?

बतलाओगे कैसा सूखा ?
कैसी होती है कलकल ?
मैंने कब का ओढ लिया है
उदासीनता का आँचल।

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

29/3/07

होली वाटर

हर प्रतिमा का चरणामृत,
गुरुद्वारे का अमृत,
मस्जिद की आबोहयात,
और बडे वाले गिरजे का,
होली वाटर।
॰॰॰कुछ नहीं चखा मैंने।
पर वो दिन याद है
॰॰॰गुनगुना पानी लायीं थी तुम।
...जानू सर्दी हो गयी है तुम्हैं,
ठंडा पानी मत पीना,
प्लीज..
और खूब खयाल रखना अपना।
और मैं पागल,
बोला,
तुम हो ना,
मेरा खयाल रखने को।
अब पानी फीका लगता है,
बेरंगा॰॰॰बेस्वाद॰॰॰
पर वो दिन याद हैं,
जब पानी रंगीन हो जाता था,
तुम्हैं छूकर।
अब मेरे गाल का वो पिंपल ठीक हो गया है,
जुकाम भी नहीं है,
मौसम भी गरम है।
तुम आज भी मेरा खयाल रखती हो,
पर क्या जाना जरूरी था?
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

मुझे यकीन है,

मुझे यकीन है,
एक दिन आएगा उसका खत,
बजेगी घन्टी मेरे मोबाइल की,
या फिर स्कैप

औरकुट पर॰॰॰॰

या फिर कहेगी

अपने दिल की बात,
अपने किसी दोस्त को,
और चुपचाप बता देगा वो मुझे,
शायद...।

एक दिन डाँटेगी वो मुझे,
कितने सुस्त हो,
॰॰॰ पागल। मेरी तरह।
और तब डबडब आखों में

ढूँढ लूँगा मैं खुद को।
एक दिन बुलायेगी वो मुझको,
बस करो॰॰॰ मैं समझती हूँ।
पर क्या सब कुछ कहना जरुरी होता है॰॰?
उसका नाज़ुक और पसीजा़ हुआ हाथ,
रख लूँगा दिल पर,
तब रोउँगा थोडी देर॰॰॰॰ उसकी गोद मैं।

वो आये, न आये,
उसका खत जरुर आयेगा एक दिन,
ऑरकुट पर॰॰॰
या फोन पर,
या॰॰॰
मुझे यकीन है।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

॰॰॰॰ अब खुश हूँ ।

अब खुश हूँ ।
अब तक सब कुछ एकतरफा था॰॰॰
अब भी है॰॰॰
पर सुबह तुम्हारा सपना आया,
सुबह-सुबह॰॰॰॰।
घर में मेरी मम्मी है॰॰॰
मैं हूँ॰॰॰
तुम भी हो ।
वैसी ही जैसी तब थी।
वही पीली और लाल सलवार,
और दूध से कुछ साफ तुम॰॰॰॰
॰॰॰॰मुझे पता है, रूठ गयी थी।
॰॰॰॰॰मुझे पता है, गलती थी।
सच मानो अब भी मेरे पुराने दोस्त फोन करते हैं,
और पूछते हैं,
॰॰॰कैसी है तेरी इन्सपरेशन ?
नये दोस्त भी जानते हैं तुम्हें।
तुम्हारी तस्वीर देखी है उन्होंने कम्प्यूटर के डेस्टोप पर॰॰॰
पूछते हैं कहाँ है?॰॰॰ कौन है ?
मैं मुस्काता हूँ, और विजयी भाव से कहता हूँ,
ये है मेरा पहला प्यार।
जिसकी यादों ने कभी परेशान नहीं किया।
हर वक्त याद रहती है ये मेरी इन्सपरेशन बनकर॰॰॰
ये मेरा पहला प्यार है, एकतरफा।
पर आज सुबह-सुबह तुम आयीं थीं,
कुछ कहने॰॰॰
॰॰॰॰ अब खुश हूँ ।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

यहीं कहीं..

शहर शहर का मैं वाशिंदा,
हर मन तक मेरी भटकन
मेरा मीत छिपा बैठा है,
जैसे यहीं कहीं।
अपना सर मेरे काँधे पर,
रखकर जो सो जाये,
मेरे साथ-साथ जो चलकर,
सूरज को ले आये।
जिसको गले लगाकर फिर मैं,
ताकतवर बन जाऊँ,
जिसकी हर बिछुडन से घटकर,
और बडा हो जाऊँ।
साँसें वो हिम्मत दें मुझको,
मेरा साहिल यहीं कहीं,
मेरा मीत छिपा बैठा है,
जैसे यहीं कहीं।
जिसकी बातें मुझको मुझसे,
और दूर ले जायें,
जिसकी यादें आऐं गुपचुप,
और गीत बन जायें.
जो कह दे कि उड सकते हो,
और पंख ले आऊँ।
जो रोके,
बस गिर जाओगे,
और रुकूँ,
थम जाऊँ।
जैसे कोई बोले दौडो,
मंजिल फिरती यहीं कहीं,
मेरा मीत छिपा बैठा है
जैसे यहीं कहीं।
जो मेरे अनगिन पापों से
पुण्य चुरा ले आये,
जो मुझको मेरी नजरों से,
देखे, फिर मुसकाये,
मुझको साहिल से समझौता
नहीं है करना आता,
साहिल से भी दूर तक
जो साथ निभाये,
जिसके साथ मुझे चलने पर
फक्र लगे दुनिया वालो,
ऐसी दुनिया दिखती जैसे
सजी हुई है यहीं कहीं
मेरा मीत छिपा बैठा है
जैसे यहीं कहीं।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

मैं धीरे धीरे ऊपर आउँगा

सबर करो,
मैं धीरे धीरे ऊपर आउँगा।
धीरे धीरे,
पायदान मैं, चढता जाऊँगा।
नीचे वाली सीढी पर हूँ,
पर मत घबराओ,
दौडने वालों की हाँफन से पहले आउँगा।
सबर करो मैं धीरे धीरे ऊपर आउँगा।
मीत मेरे तुम मत रुकना पर,
मैं कुछ धीमा हूँ।
दौड तुम्हारी तुम्हैं थका दे,
तब मैं आऊँगा।
अपनी गोद में तुम्हैं उठाकर,
फिर बढ जाऊँगा।
मेरा साथ ना देना चाहो,
कोई जोर नहीं।
मंजिल तक पर तुम्हैं साधकर,
मैं ले जाऊँगा,
लेकिन मुझको मंजिल से भी आगे जाना है,
साथ तुम्हारे चलूँगा,
या फिर तन्हा जाऊँगा।
सबर करो मैं धीरे धीरे ऊपर आउँगा।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

मजा आने लगा है।

इतना बदल लिया है
खुद को ऐ जिन्दगी,
अब तो अकेलेपन में
मजा आने लगा है।


आँसू दफन के दिल में
इतना घुटा हूँ मैं,
अब दर्द की शिकन में
मजा आने लगा है।


वो सब रहैं सलामत,
जो थे कभी करीबी,
अब उनसे दूरियों में
मजा आने लगा है।

जानता हूँ मंजिल
मेरे लिये रुकी है,
रुखों की बेरुखी में,
मजा आने लगा है।

देवेश वशिष्ठ ' खबरी '
9410361798

खूब डाँटा आज,

खूब डाँटा आज,
यादों को,
बेवक्त यादों को।
वक्त- बेवक्त, हर वक्त क्यों चली आती हो तुम ?
लावारिस सी।
मैं तुम्हारी तरह फालतू नही हूँ,
काम करना है ढेर सारा,
पैसे का जुगाढ़ करना है,
शोहरत घसीट कर लानी है,॰॰॰ पैरों तक।
पर तुम हो कि पीछा ही नहीं छोङती।
रोज दुत्कार देता हूँ तुम्हैं,
लंच के बाद जब बाँस की 'क्विक' और 'हरी' की आवाजें आती हैं।
भाग जाने को कहता हूँ तुमको,
जब मेरा सबसे अजीज़ दोस्त मुझे घुटता है।
चंद सिक्के ज्यादा कमा लेता है मुझसे ॰॰॰
इस दोस्त से लड़ना है।
फिर दिल्ली से॰॰॰
फिर दुनिया से॰॰॰
तुम तो फालतू हो ॰॰॰
बेकाम की।
कभी उसके पास भी जाया करो॰॰॰,
जिसकी ढेर सारी तस्वीरें एक साथ मेरे सिराहने रख देती हो,
और फिर रात भर॰॰॰
खीज आती है तुम्हारी इन हरकतों पर।
भागो यहाँ से , मुझे सोना है॰॰।
जाओ उसके पास॰॰
दिखाओ उसे भी एक-आध तस्वीर मेरी धुँधली सी॰॰॰
'गयी थी॰॰'
याद बोली।
'पर उसने ॰॰खूब डाँटा आज'।
देवेश वशिष्ठ'खबरी'
9410361798

शायद चंदन की लकडी़ से तुम्हैं बनाया है।

चुन चुन कर नग
किस शिल्पी ने
तुम्हैं सजाया है।
शायद
चंदन की लकडी़ से
तुम्हैं बनाया है।
हवा बसंती
ठहर गयी है
तुम्हारे होठों पर ,
या फिर
सावन की मस्ती ने
तुम्हैं बुलाया है ?
गंगा में अर्पित पुष्पों सा
है मेरा जीवन,
श्रृध्दा ने ले
रंग सुनहरा
रुप बनाया है।
शीशे जैसे मन में दिखते
पावन कुछ बंधन,
या फिर बादल ने घूँघट में
चाँद छिपाया है।

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798