चुप है मन,
थकियारा तन,
चुपचाप चला जाता जीवन॰॰
कम होता है,
धीरे-धीरे
साँसों का चलता घर्षण।
कैसा सुख?
फिर कैसा दुःख ?
उदासीनता का आँचल।
कहाँ सांझ है ?
कहाँ सवेरा ?
आ बैठा है अस्ताचल।
चलता हूँ,
रुक जाता हूँ,
मुडकर देखूँ क्या पीछे... ?
शायद कोई छूट गया है,
मिटकर भावों के नीचे।
लेकिन दिखता नहीं कहीं कुछ,
दूर-दूर तक उडती धूल,
चेहरा मेरा खिला कहाँ है?
कहाँ खिले दिल में
दो शूल?
बतलाओगे कैसा सूखा ?
कैसी होती है कलकल ?
मैंने कब का ओढ लिया है
उदासीनता का आँचल।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798
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