29/3/07

यहीं कहीं..

शहर शहर का मैं वाशिंदा,
हर मन तक मेरी भटकन
मेरा मीत छिपा बैठा है,
जैसे यहीं कहीं।
अपना सर मेरे काँधे पर,
रखकर जो सो जाये,
मेरे साथ-साथ जो चलकर,
सूरज को ले आये।
जिसको गले लगाकर फिर मैं,
ताकतवर बन जाऊँ,
जिसकी हर बिछुडन से घटकर,
और बडा हो जाऊँ।
साँसें वो हिम्मत दें मुझको,
मेरा साहिल यहीं कहीं,
मेरा मीत छिपा बैठा है,
जैसे यहीं कहीं।
जिसकी बातें मुझको मुझसे,
और दूर ले जायें,
जिसकी यादें आऐं गुपचुप,
और गीत बन जायें.
जो कह दे कि उड सकते हो,
और पंख ले आऊँ।
जो रोके,
बस गिर जाओगे,
और रुकूँ,
थम जाऊँ।
जैसे कोई बोले दौडो,
मंजिल फिरती यहीं कहीं,
मेरा मीत छिपा बैठा है
जैसे यहीं कहीं।
जो मेरे अनगिन पापों से
पुण्य चुरा ले आये,
जो मुझको मेरी नजरों से,
देखे, फिर मुसकाये,
मुझको साहिल से समझौता
नहीं है करना आता,
साहिल से भी दूर तक
जो साथ निभाये,
जिसके साथ मुझे चलने पर
फक्र लगे दुनिया वालो,
ऐसी दुनिया दिखती जैसे
सजी हुई है यहीं कहीं
मेरा मीत छिपा बैठा है
जैसे यहीं कहीं।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

2 टिप्‍पणियां:

  1. देखो ना....
    मैं नारद जी से थोडा सा नाराज हूँ, एक तो वो मेरा ब्लोग देखने के लिये विभिन्न ब्लोगर देवताओं को नहीं उकसाते, और दूसरा आदि पत्रकार मुझे पत्रकारिता के गोर नहीं सिखा रहे। रवीश जी हमें भी आने दो कस्बे में।
    http://deveshkhabri.blogspot.com/
    देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

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  2. bahut badhiya devesh bhai
    mere yaha narad nahi khul raha aapki kya samasya hai samajh mein nahi aayi
    orkut pe kahiye.....

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