20/6/07
फिर उठा,लडखडाया,उड़ गया।
परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
गिर गया।
आसमान ने धक्का मारा,
धरती ने जंजीर डाल दी।
पखेरू भी उड़ गये साथ के।
पंछी नवेला,
बैठा अकेला।
गुमसुम,
चुपचाप,
पसीना,
घुटन,
कांप
सारी रात रोया,
चिल्लाया,
डरा,
म्यांउ की हर घुडकी पर
कई कई बार मरा।
पैरों में खो गया
पागल सा हो गया।
जंजीर बहुत गर्म हो गई,
जलाने लगी,
प्यास लगी,
भूख कलेजे तक आने लगी,
सब उम्मीद मिट गईं,
सब अरमान खो गए।
सारे सपने जैसे नींद में सो गए।
उसे आकाश नहीं मिला
और धरती भी नहीं बची
कुछ बोने को,
पर अब क्या बचा था
खोने को?
परिंदा उडा,
लडखडाया,
गिर गया।
फिर उठा,
लडखडाया,
उड़ गया।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
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देवेश सचमुच तुम्हारे विचार सटिक और उत्तम है कितनी खूबसूरती से तुमने परिन्दे की व्यथा व्यक्त की है...
जवाब देंहटाएंआसमान ने धक्का मारा,
धरती ने जंजीर डाल दी।
पखेरू भी उड़ गये साथ के।
पंछी नवेला,
बैठा अकेला।
गुमसुम,
चुपचाप,
पसीना,
घुटन,
कांप
सारी रात रोया,
चिल्लाया,
डरा,
म्यांउ की हर घुडकी पर
कई कई बार मरा।
पैरों में खो गया
पागल सा हो गया।
जंजीर बहुत गर्म हो गई,
जलाने लगी,
प्यास लगी,
भूख कलेजे तक आने लगी,
सब उम्मीद मिट गईं,
सब अरमान खो गए।
सारे सपने जैसे नींद में सो गए।
उसे आकाश नहीं मिला
और धरती भी नहीं बची
कुछ बोने को,
पर अब क्या बचा था
खोने को?
मगर फ़िर भी विश्वास हृदय में ले फ़िर उड़ा अबकी बार उड़ ही गया...
सुनीता(शानू)
इतना नहीं सरल ,,,,
जवाब देंहटाएंये बड़ा तिक्ष्न गरल , सुधामय
गर पान करना है ,,,,
सत्य का ज्ञान करना है
द्वैत की छोड़ आद्वेत को बांध ,,
एकीकार होकर,,,,,,,,,,,
अन्यन्यता खोकर ,,,,,
सुधा मय से मुह मोड़ ले ..
मय स्रस्ति दामन छोड़ ले ,,,
बन जा स्रस्ति का भर्ता,,,,
बन जा जग का कर्ता,,,,,,
मिटेगा क्रंदन ,,,,,,,,
होगा नूतन ,,,,,,
यही है जीवन
गर यह ज्ञान हो गया ,,,
अभिमान खो गया
मिलेगा सुख
होगा न दुःख
मिटेगी अंतस वेदना ,,,
मिलेगी सत्य चेतना ,,,,
जव सत्य का आरम्भ होगा .
तभी जीवन प्रारम्भ होगा ,,,
सत्य ज्योति जगा दो
भ्रान्ति सब मिटा दो
पाप धो कर
निज आस्तित्व खोकर
करो साधना
जिसे करते है कुछ विरल..
इतना नहीं सरल
ये बड़ा तिक्ष्न गरल ,,,,,,,,,,,,,
मैं नत मस्तक हूँ दोस्त सोचता हूँ आप का ब्लॉग पहले क्यों नहीं पढ़ा बहुत बेहतरीन लिखते है सुभ कामनाओं के साथ आप का प्रवीण शुक्ल
9717840940,9211144086