14/7/17

अबे ओ दल्ले ! सुनो...















अबे ओ दल्ले
सांप की केंचुली में छिपे जोंक
तुम सबसे घिनौने तब नहीं होते 
जब बनते हो प्रहरी
और हाथ में डेढ़ फुट का डंडा
या वर्दी पर टंके सितारों के रुआब में 
तुम उसे भगाते हो थाने से
जो भेड़ियों से भागकर 
घूंघट भर हिम्मत जुटाकर 
मन में प्रलंयकारी प्रण करके पहुंचती है
और तुम्हारीं 
लपलपाती फटी जीभ तक पहुंचे 
भोग का प्रकोप 
उसकी बची खुची 
अस्मत-किस्मत-हिम्मत को भी 
चीर देती है

अबे ओ दल्ले
खादी के पीछे के रंगे सियार 
तुम सबसे अश्लील तब नहीं होते
जब दलालों के पूरे कुनबे के साथ बैठकर
मनाते हो जश्न हादसों का
चिताओं का ताप, लाशों की सढांध 
तुम्हारे मुंह में पानी लाती है
और तुम तुम्हारी तोंद से ज्यादा लील जाते हो

अबे ओ दल्ले
छाती पर बैठ मूंग दलते सरकारी दामाद
तुम तब सबसे हरामखोर नहीं होते
जब जिंदा गरीब की खाल खींचते हो
उसके जी को खौलाकर तिल तिल मारते हो
लेकिन उसके माथे पर लिखे कर्ज का 
सूद भर भी उसे नहीं देते
पर उसी के हाड़-मांस-पसीने पर 
ठहाके लगाते हो
लाढ़ लड़ाते हो
बच्चे पढ़ाते हो
और उसकी किस्मत की फाइलों पर 
कतारों के दलदल के दस्तखत करने में 
तुम्हारे हाथ नहीं कांपते

अबे ओ दल्ले
तुम सबसे कमीने, सबसे कुटिल, सबसे चालबाज तब होते हो
जब हाथ में थाम लेते हो माइक
और मार देते हो लाख सपनों की पैमाइश
तुम सबसे हरामखोर, सबसे अश्लील तब होते हो
जब और दल्लों की तुम्हारी ओर उछाली चाप को
तुम हजारों घुंटी हुई सांसों का दम घोंटकर उछलकर लपकते हो
तुम सबसे अमानवीय तब होते हो
जब तुम सवाल बेचते हो
क्योंकि दल्लों के दलदल में फंसी छटपटाती जान के पास
सिर्फ सवाल होते हैं !

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
14 जुलाई 2017 (नोएडा)

10/3/17

रुंधे गले से...

मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जैसे सबकी आवाज उठाओ,
और खो बैठो अपनी आवाज
ऊं... ऊं... घुर्र घुर्र.... बस
जाहिलों की तरह...
मन ही मन...
इंतजार करूं...
कोई शिकार करे... मैं जूठन खाऊं...


मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जब मन में विरोध हिलोरे मारे...
और बैठ जाऊं मन मार कर...
... श्श्श्श्श्शचुपचाप...
झूठी बातों के बीच
भूल बैठूं अपना सच
और कर लूं यकीन,
मान लूं ललाट लिखा...


मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जब पचा लूं हर जिल्लत को...
पूरी बेशर्मी से...
मार दूं अपने हर विचार को
नाजायज औलाद की तरह...
और भारी लबादों में उनके लिए ढूंढ़ता फिरूं
उनके बाप का नाम...
मार कर खुद को...


मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जब हर साबित करने पर तुलता हूं...
ये मेरा झूठा नकाब नहीं
यही सच्चाई है... कसम से...
गंगा कसम... मां कसम...
मेरी कसम... उसकी...
हां उसकी भी...
रुंधे गले से...


देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705
03-03-2010