4/7/07

बडे़ भाई की ब्लोगर मीट

भाई साहब हम पत्रकारों की जात ही ऐसी होती है कि पाँच सितारा होटलों में भी मान मनौब्बत करवाकर ही पहुँचते हैं। पर इस बार बिन बुलाये भी पहुँच गये थे। मनीष भाई रांची वाले, रांची से दिल्ली पधारे थे।मनीष जी के संस्मरण तो खूब पढे थे, पर पहली बार उनके पीछे का स्टिंग हाथ लगा। मैंने स्कूप ढूँढ लिया कि मनीष जी इतने यात्रा टाइप संस्मरण इसलिये लिख लेते हैं क्योंकि उन्हैं स्टील अथॉरिटी ऑफ इण्डिया की मैनेजरी प्राप्त है। सुगबुगाहट थीं कि बहुत जल्दी 'मेरा दिल्ली संस्मरण' भी मनीष जी लिख ही डालेंगे। खैर जैसे मनीष जी का 'सेल' हर किसी की जिंदगी से जुडा है, वैसे उन्होंने भी दिल्ली के ब्लोगर दोस्तों से मिलने की ठानी, कुछ नारदीय रॉ एजेण्टों को विशेष रिक्रूट किया गया पता लगाने को कि दिल्ली के ब्लोगर कहाँ कहाँ अण्डरग्राउण्ड हैं? साहब खोद खोद कर फुनियाये गये। पर हमारा नसीब कहें या अति सतर्कता हमारे नोकिया 1110 तक एक भी घन्टी नहीं आई। पर इसमें मनीष जी की गलती भी कहाँ है? वो दिल्ली के ब्लोगरों से मिलना चाह रहे थे, पर विश्व के सर्वश्रेष्ठ कवि/पत्रकार/ब्लोगर यानी मैंने पैदा लेने का जुर्म तो आगरा में किया था, सो हम तो हुऐ 'आगरी'। फिर मनीष जी की देहलवी थीम पर कैसे फिट बैठ पाते? पर आजकल हम दिल्ली गेट से लाल किले और मूलचंद से पालम के फ्लाईओवरो पर झक मार रहे थे सो संगीतकार मित्र सजीव सारथी जी ने जबरन हमें भी घसीट लिया।

(चित्र में बायें से शैलेश भारतवासी,सजीव सारथी, देवेश खबरी यानि मैं खुद :), , अमित गुप्ता, मनीष ,अरुण अरोड़ा,जगदीश भाटिया

खैर, होटल पार्क में हुई ब्लोगर मैत्री मीट में हमने एकमात्र बिन बुलाऐ मेहमान का एक्सक्लूसिव फर्ज अदा किया। पर ज्यादा मजा तो तब आया जब हर इतवार 'हिन्द युग्म' पर कविता के स्तर को बनाये रखने की सख्त हिदायत देकर पुचकारने वाले युग्मेश्वर शैलेष भारतवासी जी पहने से ही एक्सक्लूसिव की जुगाड़मेंट में बैठे थे। उस दिन मैं नबाबी-पत्रकारी-झोला छाप स्टाइल में था,गालों पर फ्रेन्च कट, बदन पर झनझना लाल कुर्ता और जूट का थैला। बिल्कुल 1947 की लव स्टोरीज की बीट पर काम करने वाले पत्रकार के माफिक। यकीन मानिये इस पहनावे का इतना असर हुआ कि मनीष जी ने तुरंत एक मात्र अलग रखी कुर्सी मेरी तरफ खिसका दी। अब तक मेरी नजर पंगेबाज पर नहीं गयी थी, पिछली ब्लोगर मीट (मैथली जी वाली) में अरुण जी और अविनाश जी का फोटो एक साथ मैंने ही खींचा था, सो डर लगना स्वाभाविक था। जी नजरें मिलीं दुअ सलाम हुई और मैंने कुर्सी थोडी खिसकाकर 'अमित जी' के पास कर ली। अमित जी के पास चूँकि पावर ऑफ अटॅर्नी है एसे में किसी भी पंगे से मुझे वही बचा सकते थे। खैर जब तक पंगेबाज मैदान में रहे मेरे बोल नहीं फूटे। उनके साथ मैथली जी भी थे। जिनके बस इतने ही शब्द मैं सभी के लिये कट-कॉपी-पेस्ट की तरह सुन सका-
"अरे! आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।"
खैर जनाब पंगेबाज जी का पंगे का वक्त हो गया था और मैथली जी का नयी खोजों का। सो दोंनों जल्दी चले गये। मैंने सोचा चलो जान बची, पर असली तो अब अटकी थी। उस दिन अमित जी और मनीष जी के साथ मिलकर पत्रकारों से आहत जगदीश भाटिया जी की तिकडी के बीच मुझे अपना पत्रकार बताना महँगा पड गया। फिर क्या क्या हुआ अगली बार बताऊँगा।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'