15/12/08

राधा कैसे न जले-11



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देव घर लौट आया था.
क्यों? उसने मुझे नहीं बताया-
देव मुझसे सारी बातें छुपा जाता था. पर मुझे पता था. वो बहुत कुछ भूल आया था. भुलक्कड़ था देव. देव को कुछ भी याद नहीं आता था. वो स्कूल- स्कूल का रिशेप्शन- करनपुर की हलवाई की वो दुकान- ढलान की दूध जलेबी- पांच रुपये के स्टीम्ड और दस रुपये में फुल प्लेट फ्राइड मोमोज़- गांधी बाबा का पार्क- पार्क की बेंच- सर्वे चौक- कदमताल- एक रुपये के सिक्के वाला पब्लिक टेलीफोन, जिससे बातें करने के लिए देव को सब्जी वाली आंटी से रुपये तुड़वाने पड़ते थे- उसके बराबर वाली दुकान की चाय भी देव भूल गया था- देव सब कुछ भूलता जा रहा था- भुलक्कड़ हो गया था देव- याद नहीं आता था और न ही उसके खत- ये जानते हुए भी कि वो घरवालों की नजर में आ जाएंगे, वो उन्हें अपनी एक पुरानी किताब में रखकर भूल गया था- भुलक्कड़ जो ठहरा देव-

काश बिट्टू भी इतनी भुलक्कड़ हो जाती- काश राधा इतनी भुलक्कड़ होती- कितना आसान होता है भूलना सब कुछ- और फिर लोग पूजते... कन्हैया की तरह- पागल थी राधा- रोये जाती थी और उसे याद रहता था दुनिया के देव से किया वायदा- आंसू मत गिराना राधे- जैसे प्रेम निवेदन नहीं आदेश हो कोई- या निवेदन भी- लेकिन स्वार्थ से भरा- राधा रोएगी- तमाशा खड़ा होगा- मुश्किल हो जाएगी- लोग क्या कहेंगे- राधा से उसके रोने की वजह जानेंगे- भेद खुल जाएगा- सो कन्हैया भुलक्कड़ हो गया- कन्हैया सब भूल गया- पनघट से लेकर प्रियतम तक को- कान्हा भी भुलक्कड़ था देव की तरह- कन्हैया योगी हो गया- और राधा रोती रही जिंदगी भर- कन्हैया ने अपने सारे भार उतार दिए- बिना किसी कचोट के रुक्मणी जैसी 64000 पत्नियों के बाबजूद कान्या योगी बने रहे- महान थे कान्हा- एक झटके में सब भूलने की कला भी उन 64 कलाओं में से एक रही होगी जिसके लिए कान्हा का प्रताप था- कन्हैया के स्वार्थी वचन का वजन जिंदगी भर उठाती फिरी राधा और फिर गुम हो गई- राधा ने कभी कन्हैया को तकलीफ नहीं दी- कभी उसकी जिंदगी में नहीं लौटी- पर क्या हुआ? उस देवाधीश को क्या फर्क पड़ता- वो तो योगी था- दुनिया भर को भोगने के बाद भी वो विरक्त था- इसी विरक्ति को तो पूजती है दुनिया- इसी विरक्ति को पाने के लिए ही तो इतने आडम्बर किये जाते हैं- पर राधा प्रेयसी थी- वो राजनीति- रणनीति और धर्मनीतियां नहीं जानती थी- शायद थोड़ी बहुत जानती भी हो- पर कान्हा के गूढ़ प्रेम ज्ञान को वो अनपढ़ कैसे समझती- ये ज्ञानी लोग बहुत खतरनाक होते हैं- ब्राह्मणों की तरह- भोज करते हैं- दक्षिणा भी लेते हैं- और फिर चरण भक्ति भी कराते हैं- राधा कान्हां से फिर कभी नहीं मिली- कभी अपने हक की आवाजें उसने नहीं उठाईं- न कान्हा की प्रेयसी होने के महत्व का कभी फायदा उठाया- वियोग के सर्ग के बाद वो कभी नहीं दिखी- बेबकूफ थी राधा- बिट्टू की तरह- कान्हा भुलक्कड़ नहीं था- वैरागी नहीं था- स्वार्थी था वो- उसके सीने में कभी रुलाई नहीं आई- उसकी वजह से कभी राधा को हिचकियां नहीं आईं पर देव कैसे किसी को बताता कि हर रात उसे इतनी हिचकियां क्यों आतीं हैं- भुलक्कड़ जो ठहरा- सब भूल गया था देव-

मेरा अध्ययन थोड़ा कम है- इसलिए नहीं पता कि किसी मंत्रशास्त्र में राधा की सुंदरता का भी कोई वर्णन है क्या? लेकिन इतना जरूर कहूंगा, रुकमणि ज्यादा खूबसूरत रही होगी- देव का प्रेम भी सुंदरता और वैभव की कसौटी पर कसा जाने लगा था- घर में रिश्ते के लिए हर रोज मेहमान आने लगे थे- रोज मेज पर प्लेटें बिस्किटों से भरी जातीं थीं- और देव बेशर्म हंसता हुआ चेहरा लेकर उनके पास चला जाता था- फिर उसके इंट्रोडेक्शन का रिवाज शुरू होता था- पिताजी उस वक्त चारण-भाट हो जाते थे- छायावादी कवियों की तरह उन्हें उसमें कोई दोष दिखाई नहीं देता था- तारीफों के पुल बांधने लगते थे- देव दिल्ली में तमाम प्रतिष्ठित चैनलों में बड़े पदों पर नौकरी कर आया था- एक से बढ़कर एक जॉब अपोर्च्युनिटी देव की चौखट पर खड़ी रहीं थीं- पर कितना बड़ा वैरागी था देव- सब पर लात मार आया- पिताजी सच छिपा जाते थे- भगोड़ा हो गया था देव- कृष्ण की तरह- रणछोड़- देव की छलांगे नकली थीं- वो खुद से भाग रहा था- भागकर देव सोचता था कि सारे झंझटों को वहीं छोड़ आया है- विरक्ति का नया तरीका ढूंढ निकाला था देव ने- पिताजी को देव में कोई बुराई नज़र नहीं आती थी- सिर के उड़ते बाल- सर्वाइकल स्पोंडियोलाइटिस- देव बीमार था- बिट्टू जानती थी- इसीलिए उसे उसकी ज्यादा फिक्र रहती थी- देव को शादी के लिए लड़कियों के फोटो दिखाए जाने लगे थे- एक से एक खानदानी उसके दरवाजे पर आने लगे थे- बिट्टू तो अकेली थी- पहाड़ी की मुड़ती हुई ओट सी- बिट्टू भी राजनीति नहीं जानती थी- पहाड़ी नदियों में कचरा नहीं होता, जब तक मैदान में नहीं आ जातीं- बहन के हाथों में देव को रिझाने के लिए फोटो होते थे- पर सब के सब क्लोज अप- देव उनमें बिट्टू को ढूंढता था- उसके उन हाथों को ढूंढता था जो दर्द से कराहते उसके कंधे की बिना कहे मालिश कर देते थे- देव को सिर्फ क्लोज अप दिखाए जाते थे- उनमें देव को बिट्टू जैसी तस्वीरें तो मिल जाती पर बिट्टू जैसे हाथ नहीं- देव उन निगाहों को ढूंढता था जो देव को सर्दी से बचाने के लिए सपने बुनते थे- अपराधी था देव- पता नहीं बिट्टू क्यों ऐसे देवों को माफ कर देतीं हैं- पता नहीं क्यों राधाएं क्यों खामोशी से रोती रही- बेबकूफ थी राधा- बिट्टू की तरह- पर आज देव का भला रुंध रहा था- देव को बिट्टू की बहुत याद आ रही थी- आज हिचकियां भी बहुत आ रहीं थीं, और देव सोच रहा था- सवेरे ड्यूटी जाना है- ये बिट्टू कब सोएगी- कब सोने देगी-

जारी है-
देवेश वशिष्ठ खबरी

15/9/08

एक हवेली, एक कहानी


पुरानी हवेलियां बूढ़ी औरतों की तरह होती हैं. इठलाते बचपन की तरह किसी ने उन्हें प्यार से उठाया. जवान अल्हड़ नक्काशियां की. उनकी चुनरी पर धानी, नीले, लाल, और चटख रंग भरे. उन नशीली हवेलियों ने वो दौर भी देखा जब बुढ़ापे में उनके दरवाजे की रौनक कम होने लगी. राजस्थान के राजपूताना किले, शाही छतरियां और रेगिस्तान में बाबड़ियां इतिहास की गाढ़ी मोटी जिल्द में लिपटी किसी कहानियों की किताबों के पन्ने की तरह लगती हैं. पर हर हवेली की देहरी और हर देहरी का चौबारा एक-एक कहानी है. जो अब भी वैसे ही सुनी जा सकती है. उस कहानी के पात्र दीवारों से अब भी चिपके हैं. भित्ति चित्र बनकर.
राजस्थान की जमीन पर कई जगह प्रकृति ने उजास रंग नहीं भरे तो राजस्थानी आवारगी ने सतरंगी रंग में सराबोर ‘सवा सेर सूत’ हर सिर पर बांध लिया. रंगों की इसी चाह ने रेतीले मटीले राजस्थान के हर घर को हवेली बना दिया और हर दीवार को आर्ट गैलेरी.
राजस्थान का शेखावाटी ‘ओपन आर्ट गैलेरी’ कहा जाता है. चूरू, झुंझनू और सीकर जिलों को मिलाकर एक शब्द में ‘शेखावाटी’ कहने का रिवाज है. इसी शेखावाटी में झुंझनू जिले का नवलगढ़ हर सुबह सूरज से रंगों की तश्तरी लेकर हर घर को हवेली बना देता है.
नवलगढ़ में तकरीबन 700 छोटी-बड़ी हवेलियां हैं. अगर सिर्फ भव्य और बड़ी हवेलियों की बात करें तो भी 200 का आंकड़ा तो पार हो ही जाएगा. नवलगढ़ की हवेलियों के बारे में सुना था. पर जब देखने पहुंच गया तो लगा कि सावन का अंधा हो गया हूं हर तरफ सिर्फ रंग दिख रहे हैं. दीवारों पर उकरे रंग. छतरियों पर छितरे रंग. छज्जों में छिपते रंग. आलों में खोए रंग. राजा रंग. दासी रंग. सैनिक रंग. सेठिया रंग. अगर मुझे कोई दोबारा व्याकरण गढ़ने की इज़ाजत दे दे तो इन हवेलियों में बैठकर मैं रंगों को यही नाम दे सकूंगा.
जितने रंग उतनी हवेलियां. जितनी हवेलियां उतनी कलाकारी. और जितनी कलाकारी उतनी कहानियां. ‘जित देखूं, तित तूं’ हर गली में हवेली. हर घर हवेली. मोरारका की हवेली... पोद्दार की हवेली... सिंघानिया की हवेली... गोयनका की हवेली... जबलपुर वालों की हवेली... जोधपुर वालों की हवेली... कलकत्ता वालों की हवेली... सेठ जी की हवेली... सूबेदार की हवेली... राजा की हवेली... हर मौसम की हवेली... जैसे पुराना रोम जूलियर सीजर जैसे उपन्यासों से झटके से बाहर उतर पड़ा है और हर काला हर्फ एक हवेली बन गया है.

नवलगढ़ के इस रंगमहल से जब दोबारा चेतना में आया तो पहला सवाल उठा- किसने बनवाईं इतनी हवेलियां. एक साथ... एक जैसी... और यहीं क्यों... इतनी सारी...
वहां के लोगों से पूछा- जितने मुंह उतनी कहानी... हर कहानी की अलग वजहें... और हर वजह के अपने अपने सवाल... खबरी मन नहीं माना तो किताबें कुरेदनी शुरू कीं. किसी ने बताया कि यहां से सिल्क रूट गुजरता था. दो सदी पहले तक यहां 36 करोड़पतियों के घराने थे. एक हवेली बनी. दूसरी बनी. तीसरी... चौथी और फिर पूरा शहर बस गया. खाटी हवेलियों का शहर. शेखावाटी के लिखित अलिखित इतिहास के जानकारों के मुताबिक पन्द्रहवीं शताब्दी(1443) से अठारहवीं शताब्दी के मध्य यानी 1750 तक शेखावाटी इलाके में शेखावत राजपूतों का आधिपत्य था. तब इनका साम्राज्य सीकरवाटी और झुंझनूवाटी तक था. शेखावत राजपूतों के आधिपत्य वाला इलाका शेखावाटी कहलाया. लेकिन भाषा-बोली, रहन-सहन, खान-पान, वेष भूषा और सामाजिक-सांस्कृतिक तौर-तरीकों में एकरूपता होने के नाते चुरू जिला भी शेखावटी का हिस्सा माना जाने लगा. इतिहासकार सुरजन सिंह शेखावत की किताब ‘नवलगढ़ का संक्षिप्त इतिहास’ की भूमिका में लिखा है कि राजपूत राव शेखा ने 1433 से 1488 तक यहां शाशन किया. इसी किताब में एक जगह लिखा है कि उदयपुरवाटी(शेखावाटी) के शाशक ठाकुर टोडरमल ने अपने किसी एक पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के स्थान पर भाई बंट प्रथा लागू कर दी. नतीजतन बंटवारा इतनी तेजी से हुआ कि एक गांव तक चार-पांच शेखावतों में बंट गया. यही भूल झुंझनू राज्य में भी दोहराई गई. इस प्रथा ने शेखावतों को राजा से भौमिया(एक भूमि का मालिक) बना दिया. झुंझनू उस वक्त के शाशक ठाकुर शार्दूल सिंह के पांच पुत्रों- जोरावर सिंह, किशन सिंह, अखैसिंह, नवल सिंह और केशर सिंह की भूमियों में बंट गया. नवल सिंह का नवलगढ़ उसी भाई बंट प्रथा का ही एक नमूना है. केन्द्रीय सत्ता के अभाव ने सेठ-साहूकारों और उद्योगपतियों को खूब फलने फूलने का मौका दिया. हवेलियों के रंग पहले संपन्नता के प्रतीक बने, और फिर परंपरा बन गये. खेती करते हुए किसान से लेकर युद्ध करते सेनानी तक. रामायण की कथाओं से लेकर महाभारत के विनाश तक. देवी- देवताओं से लेकर ऋषि-मुनियों तक... पीर बाबा के इलाज से लेकर रेलगाड़ी तक... हवेली की हर चौखट, हर आला रंगा-पुता. इंसान की कल्पना जितनी उड़ान भर सकती है, इन हवेली की दीवारों पर उड़ी. जो कहानी चितेरे के दिमाग पर असर कर गई वो दीवार पर आ गई. जो बात दिल में दबी रह गई, उसे हवेली की दीवारों पर रंगीन कर दिया गया... लेकिन एक दिन तेज़ हवा चली और उस रंगीन किताबों के कुछ पन्ने जल्दी जल्दी वक्त के साथ उड़ गए. हवेली मालिकों ने हवेली छोड़ दीं. कोई विदेश चला गया तो कोई हवेली अनाथ हो गई. जैसे एक हवेली को देखकर दूसरी बनी थी बिल्कुल उसी तरह एक पर ताला जड़ा तो दूसरी हवेलियों के दरवाजे भी धड़ाधड़ बंद होने लगे. शेखावाटी की हवेलियों के रंग फीके पड़ने लगे हैं. अचानक जैसे इठलाती हवेलियां बूढ़ी हो गई हैं. इन बूढ़ी मांओं को सहारे की ज़रूरत है. जो इन्हें देखे... देखभाल करे.
(ये लेख तहलका हिंदी पर भी छपा है, यहां पढ़ें)
देवेश वशिष्ठ खबरी
9811852336

4/9/08

राधा कैसे न जले- 10

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ठंडी होती चाय कितनी बेसब्र होती है. जैसे धीरे धीरे प्राण जा रहे हों और जिसके लिए जीवन लगा देने का व्रत लिया है वो बेपरवाह हो गया हो. देव नए दफ्तर जाता है और सवेरे की चाय का पहले कप में से अचानक जैसे कोई पहाड़ी जिन निकलता है और उसे खूब चिढ़ाता है. उसके होठों पर भी वैसी ही प्यासी मटमैली पपड़ी पड़ जाती है जैसी ठंडी होती चाय पर होती थी. थोड़ी देर बाद जिन चुपचाप फिर उसी कप में उतर जाता है और खाकी मटमैली पपड़ी में छिपकर जोर जोर से रोने लगता है. देव उससे ध्यान हटाता है और लबादे की तरह डेस्क पर पड़े अखबारों पर सरसरी नज़र दौड़ाता है. पर खबरों के काले काले अक्षरों बड़े बड़े दाड़ी मूछ वाले राक्षसों की तरह उसे डराने लगते हैं. हर खबर में वो देहरादून-मसूरी को ढूंढता है. कुछ नहीं मिलता तो अखबारों की रद्दी से मितली सी होने लगती है. उसके भी होंठ सूखने लगे हैं. वो कम्यूटर पर कुछ टाइप करना चाहता है पर कीबोर्ड से एक परी निकलकर जादू कर देती है. कोई बटन काम नहीं करता. वो जोर जोर से बटन दबाता है. अचानक वो देखता है कि वर्ड फाइल पर कुछ लिखा है. एक ही नाम. बार बार. बिट्टू का नाम. उसने चाय का कप उठाया और पपड़ी के पीछे के रोते जिन समेत पी लिया. जिन अंदर जाकर फिर परी बन गया है. उस परी के हाथ में फुलझड़ी है उसका चेहरा जाना पहचाना है. बिल्कुल वैसा जैसा वो भट्टा फाल के पास छोड़ आया था. उसके दूसरे हाथ की उंगली में चोट लगी है. बिट्टू रो रही है. और असाइनमेंट डेस्क की लड़की देव को देख देखकर हंस रही है. देव को लगता है कि उसका रूप रंग बदल रहा है. उसके कपड़े गेरूए हुए जा रहे हैं. उसकी दाड़ी अचानक बढ़ गई है. उसने बाल बढ़ गये हैं और मसूरी की किसी बेशर्म आवारा पहाड़ी ने अभी तक आंखें नहीं मूंदीं हैं. उसने एक बरगद के पेड़ को भेजकर उसके लंबे बालों में दूध मल दिया है. असाइनमेंट डेस्क की वो लड़की अभी तक हंस रही है. वो बार बार कनखियों से उसे देख रही है. देव को उसकी इस हरकत से गुस्सा आ रहा है. क्यों उसे नहीं मालूम. पर ये लड़की भी उसे मसूरी की उसी पहाड़ी की तरह लग रही है. जिसे कभी भी शर्म नहीं आई. जिसने कभी आंखें नहीं मूंदी. जो चुपचाप आने वाली खामोशी में अचानक छींक पड़ती थी. बिट्टू अचानक सहम जाती. और वो निर्जन पहाड़ी फिर हंस देती. कभी कोई कोयल बोलती थी तो अच्छी लगती थी. लेकिन शायद ये लड़की बिल्कुल अच्छी नहीं है. देव को घुटन हो रही है. उसे प्यास लग रही है. वो ट्रे से ढंके पानी को देखता है. वो झरना बन जाता है मीठे पानी का झरना. बिल्कुल भट्टा फॉल के पानी की तरह. देव कुछ समझ नहीं पा रहा. उसे पसीना आ जाता है. वो ऑफिस बॉय पर झल्लाता है. एसी ऑन करने को कहता है. अचानक गिलास के पानी से वही परी फिर बाहर आती है. धीरे धीरे पंखा झलती है. अब देव को राहत मिल रही है. सब सामान्य हो जाता है. असाइमेंट डेस्क की लड़की उठकर वहां से चली जाती है. देव को थोड़ी दम आती है. वो पानी का गिलास उठाता है. एक घूंट पीता है. पर पानी एकदम खारा है. जैसे किसी के आंसू पी रहा है. वो घबराकर गिलास रख देता है. परी फिर गायब हो जाती है. उसकी दाड़ी-मूंछें अपने आप हट जाती हैं. गेरुए कपड़े फिर पेंट शर्ट बन जाते हैं. की बोर्ड फिर काम करने लगता है. ऑफिस बॉय जिन वाला चाय का कप ले जाता है. खारे आंसू का गिलास फिर मीठे पानी से भर जाता है. असाइनमेंट की लड़की फिर आकर अपनी जगह बैठ गई है. लेकिन वो जटाधारी जोगी भागकर लंबी सांस के साथ देव के अंदर दाखिल हो जाता है. देव को लगता है जैसे उसे किसी मंदिर का महंत बनाकर यहां भेज दिया गया है और उसके प्राण वहीं पहाड़ों की किसी गुफा में रह गए हैं. वो परी उसकी आंखों में आ गई है. और अलिफ लैला की कहानियों के जान वाले तोते की तरह वो अपनी नज़रों को दुनिया से छिपाए फिर रहा है.

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
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18/8/08

राधा कैसे न जले- 9

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ये ढलान है. दूसरी निगाह से देखो तो चढ़ाई भी कह सकते हो. दो रास्ते हैं और दोनों की ओर निगाहें भी लगी हैं. देव को लौटना है. बिट्टू को भी. देव अभी देहरादून जाएगा और फिर वहां से दिल्ली. बिट्टू वापस मसूरी चली जाएगी. भट्टा फॉल के ऊपर चाय की दुकान पर बैठे बैठे सुस्ती आने लगी है. यहां से मसूरी 10 किलोमीटर ऊपर है और दून कोई 20 किलोमीटर नीचे. एक ही रास्ते से दो अलग अलग बसें आएंगी. एक जाने के लिए आएगी और दूसरी आने कि लिए यहां से जाएगी. बातों में दिखने जैसा कोई घुमाव फिराव नहीं है. हाथ छूट रहे हैं. आंखें थोड़ी देर पहले तक गीली थीं. अब सूख गई हैं. चाय एक बार फिर ठंडी हो गई है, बस का बेसब्र इंतजार बता रहा है कि दोनों को जल्दी है कि हाथ कब छूटे. नहीं यहां मैं गलत लिख गया. हाथ पकड़े रखने की कोई जोर जबर्दस्ती नहीं है पर वास्ता इतना नया भी नहीं कि झटके से छूट जाए. एक ओर ऊंचाई है तो दूसरी ओर गर्त. और मजबूरी ऐसी कि जाना होगा. ऊंचाई की तरफ भी और घुमावदार गहराई में भी बैचेनी है. पर बस है कि आ ही नहीं रही. देव को आज वो दिन याद नहीं आ रहे हैं जब हर शनिवार की शाम को देहरादून रेलवे स्टेशन के बाहर से मसूरी जाने वाली बस में बिट्टू को बैठाता था और तब तक इंतजार करता जब तक बस किसी मोड़ तक जाकर ओझल न हो जाती. यूं तो वहां से टैक्सी भी जाती थीं मसूरी के लिए. लेकिन टैक्सी पर उसे भरोसा नहीं था. अगर मजबूरी में कभी टैक्सी से जाना भी पड़ता तो कई बार ऐसा हुआ था कि वो बिट्टू के साथ खुद मसूरी तक गया और फिर स्याह रात में आखिरी लौटती बस से देहरादून लौटकर आता. घुमावों पर कहीं बिट्टू का जी न मिचलाने लगे इसलिए जेब में ठेर सारी क्लोरोमिंट लेकर जाता. घंटे भर के छोटे से सफर से पहले घंटे भर तक नुक्ताचीनी चलती. हिदायतों का सिलसिला चलता. लेकिन आज खामोशी थी. देव दिल्ली जा रहा था. हमेशा के लिए. होठों से कुछ निकलते नहीं बन रहा था. घबराहट बाहर निकल निकल कर थक चुकी थी. सारी औपचारिकताएं हो गईं थीं. देहरादून से मसूरी जाने के लिए दो बसें मिलती थीं, एक मसूरी की लाइब्रेरी तक जाती थी तो दूसरी पहाड़ी के दूसरी ओर पिक्चर पैलेस तक. बिट्टू को इसी बस का इंतजार होता था. मसूरी का एकमात्र पिक्चर हॉल तो बंद हो चुका था लेकिन उसके नाम पर चौक और बस अड्डे का नाम पिक्चर पैलेस पड़ गया था. बस की सड़क के घुमाव से उतरती बस की आवाज आई. बिट्टू की आंखों में ठहरे से आंसू अचानक छलक गए. जैसे अचानक लबालब कटोरे की ज़मीन हिल गई हो. ‘देव, तुम्हारी बस आ गई.’ खामोशी टूटी. निगाहें फिर मिलीं. बस मिलाने की हिम्मत नहीं हुई. ‘हां’, चलता हूं, तुम कैसे जाओगी? आज पहली बार ये सवाल देव ने बिट्टू से पूछा था. आज से पहले कभी नहीं हुआ कि देव को छोड़ने से पहले देव ने जाने की बात की हो. बिट्टू ने देव के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, तुम चले जाओ देव, मैं मैनेज कर लूंगी. बिट्टू ने देव के माथे को झांकते हुए से कहा. ‘नहीं, तुम्हारी बस आ जाने दो. मैं बाद में चला जाऊंगा.’ देव का मन नहीं माना. खैर ये भी नुक्ताचीनी ही थी. पर वैसी नहीं जैसी रोज होती थी. थोड़ी देर बाद बिट्टू की बस आ गई और उसके थोड़ी देर बाद देव की. उस रोज़, उस वक्त क्या हुआ, ये बताया नहीं जा सकता इसलिए मैं भी नहीं बता रहा. पर बिट्टू ने चलते चलते बस एक बात कहीं, देव अब जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा. उस दिन देव की आंखें और गला एक साथ पहली बार भरा था, वो पहला दिन था जब उसका दिलेर होने का ढ़ोंग काम नहीं आया. बस में बैठते ही वो फफक पड़ा. दो बसें दो दिशाओं में जा रहीं थीं. कुछ ही देर में दूरियां काफी बढ़ गईं थीं.
जारी है...
देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’

9811852336

8/8/08

कोई मरता क्यों नहीं


वो पहाड़ी अभी तक जिंदा है...
नहीं फटी उसकी छाती इस बारिश में भी...
शायद इसीलिये लोग उसे पत्थरदिल कहते हैं...
वो जिंदा है ये सुनने के बाद भी
कि मैंने उसे छोड़ दिया ..
अभी भी वहीं बहती है नदी...
उसी तरह... सुना मैंने
उसकी गति में आज भी पुकार है...
गालियां नहीं...
ये जानने के बाद भी
कि अब मैं कभी नहीं बैठूंगा उसके पास
पैर लटकाकर उसके साथ
पार्क का फव्वारा रो रहा है वैसे ही
पर उन आंसुओं जैसा नहीं...
जो बहते रहे दिल- दिल में,
पर दिखे नहीं कभी उस दिन के बाद
मेरी तरह...
पर खुलकर उड़ा रहा है वो माखौल
मेरे उन वादों का
जो वहीं पास की बेंच पर बैठकर किये थे मैंने...
रात अब भी नहीं मरी...
उस पर तरस खाकर...
एक भी तारा नहीं टूटा आज
उसके दिल की तरह
जिसे छोड़ दिया मैंने
दुनिया से डरकर...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

25/7/08

राधा कैसे न जले- 8

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इंसान, वक्त, युग, मन और जज्बात कब और कैसे बदलते हैं ये भी बिल्कुल अबूझ सी पहेली है... बिल्कुल देव और बिट्टू के रिश्ते की तरह... और बिल्कुल म्यार के पहाड़ की तरह... देहरादून के पास ही है टपकेश्वर महादेव मंदिर... रविवार की छुट्टी होती तो देव का सवेरा यहां बीतता और शाम गांधी मैदान में... इंदू किसी इतिहासकार की तरह बताती उत्तराखंड की राजधानी के गौरवशाली इतिहास के बारे में... उसकी बातें सुनकर देव को आश्चर्य भी होता और मज़ा भी आता... आश्चर्य इसलिये कि छुटपन से ही आसाम के बोर्डिंग में पली-बढ़ी लड़की को यहां के बारे में इतनी ज़मीनी जानकारी किसने दी... और मज़ा इसलिये आता कि वो उसे वहां से जुड़ी पौराणिक कहानियां उसे ऐसे सुनाती थी जैसे वहां की टूरिस्ट गाइड हो... एक बार टपकेश्वर महादेव के दर्शन किये तो एक अनकही सी हामी हो गई कि इतवार की हर सुबह यहीं बीतेगी... दिन भर वहीं झगड़ते... बातें करते... समझते... समझाते और शाम होते वापस आ जाते... गुफा के भीतर भगवान भोलेनाथ के पिंडी दर्शन करने के बाद, सिर पर पल्लू रखे इंदू देव को प्रसाद देती और देव चुपचाप दोनों हाथ फैला देता... देव को कोई भरोसा नहीं था भगवान के अस्तित्व पर... घर से निकला तो देव पूरी तरह नास्तिक हो गया था... पर इसे देव भूमि का जादू कहें या बिट्टू का असर... नास्तिक देव इस जगह आया तो ऐसा कभी नहीं हुआ कि भोले बाबा के दर्शन नहीं किये हों...


चाहें तब जब वो बिट्टू के साथ था, या तब जब बिट्टू उसके लिए एक कहानी बन गई... खैर उस वक्त इंदू देव की बिट्टू के साथ साथ टूरिस्ट गाइड भी थी... मंदिर के पीछे घाट की सीड़ियों पर बैठकर उथली नदी में पैर डाले इंदू बोली... पता है देव देहरादून का पुराना नाम द्रोणाश्रम था और द्वापर युग में पांडवों तथा कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य यहां तपस्या के लिए आये थे... उन्होंने यहीं, इसी गुफा में कठोर तपस्या की थी... और तब भोलेनाथ ने स्वयं उन्हें दर्शन दिये थे... तभी से इस मंदिर का नाम तपकेश्वर महादेव हो गया... इंदू की ये मायावी सी बातें देव की समझ में तो नहीं आती थीं पर उसके मुंह से कहानी की तरह सुनने में मज़ा खूब आता था... उथले पानी में छोटी छोटी मछलियां उनके पैरों के इर्द- गिर्द इकठ्ठी हो जाती तो देव पैर हटा लेता... पर इंदू के ठंडे पानी में पैर डाले रहती...
अरे मेरे बुद्दू पायलेट... अगर इस दुनिया में जब तक आप किसी को कोई नुकसान न पहुंचाओ, तब तक कोई किसी को नुकसान नहीं पहुंचाता... उसकी इस बात को सुनकर देव पहाड़ी नदी के पानी में दोबारा पैर तो डाल देता पर उसकी नादानी पर हंसी खूब आती... घर से इतनी दूर दुनियादारी देखने के बाद भी उसकी ये बात वास्तव में नादानी ही लगती थी... देव कभी ज्यादा नहीं बोलता था... उसे बस सुनने में मज़ा आता था... इंदू बोलती रहती और देव मजे से सुनता रहता... ये वो दिन थे जब किसी बात पर किसी का कोई झगड़ा नहीं होता था... सच कहूं ऐसी कोई बात ही नहीं होती थी, जिसमें झगड़े की कोई गुंजाइश बचे... जब वो छोटी मछलियां पैरों से टकराने लगी तो देव बोला... बिट्टू ये पानी गन्दा हो गया है... शायद... बात में छिपी बात से बेफिक्र इंदू फिर शुरू हो जाती... हां, सो तो है... इंदू ने सहमति जता दी... लेकिन फिर चहकी और बोली... देव जानते हो, इस नदी में कभी दूध बहता था... इससे भी एक कहानी जुड़ी हुई है... एक बार द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को बहुत भूख लगी और उनसे वो दूध की जिद करने लगा... द्रोणाचार्य तो सब कुछ छोड़कर पहाड़ पर तपस्या करने आ गये थे... वो उसके लिए दूध का इंतजाम नहीं कर पाये... पर अश्वत्थामा भी जिद का पक्का था... वो भी अपने पिता के साथ तपस्या करने लगा... भोलेनाथ ने प्रसन्न होकर यहां दूध की नदी बहा दी... पर कलयुग में ये नदी सूख गई और इसमें बरसाती पानी बहने लगा... पर ये गन्दगी तो यहां आये लोगों ने फैला कर रखी है... दुनिया भर से यहां दर्शन करने आते हैं, और यहां पर फैला देते हैं गंदगी... इसीलिए देव मुझे भीड़ बिल्कुल भी पसंद नहीं है... पर आजकल तो जहां देखो वहां आदमी ही आदमी... हर तरफ भीड़ भरी हुई है...
क्यों तुम्हें आदमी पसंद नहीं हैं... देव ने पूछा...
इंदू देव की आंखों में झांकी और बोली- नहीं... मुझे खामोशी पसंद है... पर तुम्हारे साथ...
फिर तो हो गया... मेरे साथ तुम कभी खामोश रहती हो... जब देखो तब पक पक पक पक...
दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े... पानी की मछलियां अब देव को डरा नहीं रही थी... अब गुदगुदी हो रही थी....
जारी है...
देवेश वशिष्ठ खबरी
9811852336

27/6/08

राधा कैसे न जले- 7


वािदयां- मेरी आवारगी का कहानी की पिछली कड़ियां पढ़ने के लिए यहां क््लिक करें-
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वक्त गुज़रा और इंदू शहर के रंग में रच बस गई... घर में मोहब्बत मिले न मिले, उस पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था... लेकिन घर के सवाल परेशान करते तो नौकरी की जुगाड़ में देहरादून आ गई... मैं कहानी को बिना ज्यादा घुमाए फिराए आपको ये बता दूं कि आगे इंदू उसी स्कूल में फ्रंट ऑफिस पर जॉब करने लगी जहां देव पढ़ाता था... मैं कहानी को यहां भी ज्यादा नहीं मोड़ूंगा कि उस दिन क्या हुआ होगा जब देव ने उसी लड़की को दोबारा देखा जिसे उसने आपा खोकर थप्पड़ मार दिया था... यहां आप जो भी कहानी गड़ लें आपकी मर्जी... लेकिन उस दिन एक बात ज़रूर हो गई... पहली बार गुरूर छोड़कर देव को लगा कि माफी मांगने से भी सुकून मिलता है... लंच के वक्त इंदू कैंटीन में गई... देव के साथ बैठी और बिना कुछ कहें चुपचाप खाना खाया... इस पूरे दौरान न तो देव की हिम्मत कुछ बोलने की हुई और न ही इंदू ने कुछ कहा... शाम हुई तो इंदू ने देव से पूछ लिया---- तो क्या क्या देखा आपने देहरादून में...
कुछ खास नहीं... सच कहूं तो कुछ नहीं...
देव के दिमाग में अब तक वो चीतल वाली बात ही चल रही थी...
क्या... हाऊ बोरिंग आर यू... इतनी सुंदर जगह और कुछ नहीं देखा...
इंदू ने बड़े अचरज से कहा
दरअसल वक्त ही नहीं मिला... हां कभी कभी शाम को टहलने गांधी पार्क चला जाता हूं... पास में ही है... आप यहीं रहती हैं क्या... देव ने पूछ लिया...
नहीं यहां तो मैं बस टाइमपास करने आई हूं... मेरी मम्मी मसूरी में रहती हैं... तो उस दिन तुम यहां जॉइन करने आ रहे थे...
हां... उस रात का मलाल मुझे आज तक है...
कोई बात नहीं... अगर वो तुम वो थप्पड़ नहीं मारते तो शायद आज हम दोस्त नहीं बन पाते... चलो मैं तुम्हें देहरादून घुमाती हूं...
बस यही से एक सीधी सच्ची सी लव स्टोरी शुरू होती है... लेकिन ये कहानी आगे जाकर बड़े गुल खिलाने वाली है... कहानी तो चलती रहेगी... इंदू के बहाने चलो तुम्हें देहरादून भी घुमा दूं... हालांकि अभी देव के रेस्ट हाउस पर इंदू का आना जाना शुरू नहीं हुआ है पर मैं बता दूं कि कॉलेज के पास ही करनपुर में देव कॉलेज के रेस्ट हाउस में रहता है... एकदम अकेला... करनपुर के पास ही है सर्वे चौक... और सर्वे चौक के आगे गांधी मैदान और उसके बाद घंटाघर... अरे इस बीच एक और जगह है... परेड ग्राउण्ड... याद रखना ये सारी जगह पूरी कहानी में बार बार आएंगी... घंटाघर से देहरादून में हर जगह जाने के लिए विक्रम टेम्पो मिलते हैं... और देर तक देहरादून में देव के साथ घूमने के बाद यहीं से ५ नं. के ऑटो में बैठकर इंदू अपनी मामी के घर चली गई... ज़ाहिर सी बात है कि इंदू देहरादून में जॉब कर रही है तो मसूरी से रोज़ ३५ किलोमीटर का सफर करके तो आएगी नहीं... उस दिन से जो सिलसिला शुरू हुआ कि हर दिन.... कॉलेज के बाद रोज शाम एक घंटा इंदू और देव गांधी पार्क में जाने क्या क्या बतियाते रहते... न वहां देव का कोई और था और न कोई इंदू को मिल सका था... थीं पर इंदू को फुआरे के किनारे वाली लोहे की बेंच ही पसंद थी... देव कम बोलता था... इंदू सब कुछ बताती... अपने बारे में, अपने दोस्तों के बारे में... चंद्रमा से अपने रिश्ते के बारे में... इंदू चांद की ओर इशारा करके बोलती... पता है ये मेरा सबसे अच्छा दोस्त है... मैं इंदू और ये चांद... बिल्कुल एक से... पता है मैं जब भी परेशान होती हूं या किसी से दिल की बातें करने का मन करता है तो इसी को सब बता देती हूं... ये कभी नहीं कहता कि कितना बोलती हो... मैंने इससे कभी कुछ नहीं छिपाया... इसे सब पता है... सब कुछ... ये भी कि आसाम में उस लड़के ने जब मुझे प्रपोज किया था तो मैंने भी हां कर दी थी... पर उसी दिन मुझे पता चला कि वो मेरी क्लासमेट पर भी लाइन मार रहा था... और उस दिन देव मैंने जो दिया न उसके खींचकर... उसे जिंदगी भर याद रहेगा... कहते कहते इंदू खिलखिलाकर हंस पड़ी... इंदू की यही आदत थी... हर माहौल में वो हंसने का बहाना ढूंढ लेती थी... ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी ने इंदू को किसी से नाराज़ देखा हो... इस लड़की को किसी से कोई शिकायत नहीं थी... बात करती तो खुलकर... हंसती तो पूरी खिलकर... लगता जैसे गांधीजी की मूर्ती के सामने लगा फुआरा उसकी हंसी के साथ और ऊंचा हो जाता था... और उसकी दो बूंदे बातों बातों में उसके बालों को छू जातीं और पार्क की लाइट में चमकने लगतीं तो... देव को इंदू का साथ अच्छा लगने लगा था...
जारी है...
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देवेश वशिष्ट 'खबरी'
9811852336
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20/6/08

राधा कैसे न जले- 6

वादियां- मेरी आवारगी की कहानी की पुरानी किश््तें यहां पढ़े-

जब अपने पिता को इंदू ने पहली बार देखा ऐसा कुछ नहीं हुआ जैसा हिन्दी फिल्मों में दिखाया जाता है... इंदू न रोई न चिल्लाई... अपने पिता से ये उसकी पहली पहचान हुई थी लेकिन बिल्कुल ठंडी और निर्जीव... बोर्डिंग की पढ़ाई पूरी हो गई थी... नाते रिश्तेदारों ने इंदू की मां से कहा तो उसे वहीं रोक लिया... शूरू में सारे रिश्ते नाते इंदू को अजब सी बनावट लगते... पर वादियों की रानी मसूरी में उसके पैर जैसे ही घर से बाहर पड़ते, दिमाग का सब ऊहापोह मिट जाता... मसूरी की एक खास बात मैं आपको बताता चलूं... शिवालिक की पहाड़ियों पर बसे मसूरी की एक खासियत है... यहां एक ही वक्त में अलग अलग मौसमों का मज़ा लिया जा सकता है... अगर मसूरी में पहाड़ के एक तरफ सूरज मेहरबान हो रहा होता है तो मुमकिन है कि जहां से उस पहाड़ी का घुमाव शुरू होता है वहां की सड़क पर बारिश हो रही हो... एक ही वक्त में धूप छांव का अजब खेल चलता है इस जादूई शहर में... हालांकि बहुत छोटा सा है मसूरी... देव जब भी बिट्टू से मसूरी घूमने की जिद करता था तो वो तपाक से यही कह देती थी... अरे मसूरी है ही कितना बड़ा... वो तो में तुम्हें बातों बातों में घुमा दूंगी... और फिर शुरू हो जाती थीं इंदू की बातें... देव, देखो ये गनहिल है ना, यहां से वो धनोल्टी दिखती है... औऱ वो दूर... वहां दूरबीन से जो छोटे छोटे झंड़े दिख रहे हैं ना... लोग कहते हैं कि वहां पांडवों ने तप किया था... देखो ना देव यहां के बंदर कितने मोटे मोटे और झबरीले हैं... पता है इनके झबरीले बाल इन्हें यहां की ठंड़ ये बचाते हैं... और उधर कैम्टीफाल... नहीं वहां नहीं जाएंगे... वहां बहुत भीड़ रहती है... यहां पास में भट्टा गांव में एक और झरना है... वहां कोई नहीं जाता... और- और तुम कभी बुद्धा मोनेस्ट्री गये हो... पता है... वहां पांच सौ सीढ़ियां हैं... और वो भी एकदम खड़ी... पर मैं तो दो मिनट में वहां चढ़ जाती हूं... पर तुम थक जाओगे... और पता है यहां से परसों एक जीप खाई में गिर गई थी...और देखो देव ये नीचे हमारा स्कूल... यहां मैं बच्चों को पढ़ाती हूं... यहां ना एक बड़ा प्यारा सा बच्चा है... बिल्कुल तुम्हारी तरह... हे भगवान, कितना बोलती थी बिट्टू... कि घूमना छोड़ो उसे चुप कराने में ही वक्त गुज़र जाता था... ओफ्फो... मैं फिर विषय से भटक गया... अभी देव और इंदू की प्रेम कहानी शुरू ही नहीं हुई और मैं उनके घूमने की कथा सुनाने लगा... अभी तो देव इंदू की जिंदगी में आया ही नहीं है... पर क्या करूं उसकी कहानी है ही इतनी आजाद कि उसे सिरे से बांधना मुश्किल है... हां तो मैं कह रहा था कि इंदू को मसूरी की खूबसूरती भा गई थी... इसीलिए उसका वहां मन भी लग गया... सवेरे सवेरे पैदल पैदल दूर पहाड़ी पर निकल जाती... उसे भीड़-भाड़ से चिढ़ सी हो गई थी... वो इंदू जो आसाम में सबसे शरारती थी... बंदिशें तोड़कर जीने में जिसे मज़ा आता था... वो अकेलापन ढूंढने लगी थी... वक्त इंसान की सूरत और सीरत कैसे बदल दे कोई नहीं जानता... शायद इसीलिए कहते हैं कि कल क्या होगा... कैसा होगा... किसी ने नहीं देखा...

जारी है...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

3/6/08

राधा कैसे न जले- 5

वादियां मेरी आवारगी की कहानी के पिछले हिस््से यहां पढ़े-
वादियां मेरी आवारगी की कहानी- I, II, III, IV



आगे...

देव की नई नई नौकरी लगी थी... दिल्ली की तंग दिली से निकलकर देहरादून की वादियों के बीच जा रहा था... ये भी एक सफर था, जो जारी था... हाथ में किताब थी... महाश्वेता देवी की हज़ार चौरासीवें की मां... पहले चार पन्ने पढ़कर ही मन खराब हो गया... इसलिए नहीं कि किताब खोटी थी... इसलिए कि चार पन्ने ही इतना असर कर गए कि बाकी पढ़ने की हिम्मत नहीं बची... बस का लम्बा सफर भी उबाऊ था... मोबाइल के एफ एम में कुछ किलोमीटर पहले तक दिल्ली और मेरठ से आ रहे रेडियो स्टेशनों के गाने साफ साफ सुनाई दे रहे थे... रात थी... बाहर का कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था... जब इंसान माहौल से न जुड़ पाए तो ऊब होती है... और इस से निज़ात पाने का तरीका है कि या तो पूरी तरह माहौल में रम जाओ... या पूरी तरह अपने में खो जाओ... और कोई तरकीब नहीं है बचे रहने की... हां एक और है... सो जाओ... देव ने सोने की कोशिश की... पर न जाने किन ऊबड़ खाबड़ रास्तों से गुजर रही थी बस... ऐसे में कहीं नींद आती है... पहली जनवरी थी... ठंड थी... और इसीलिए बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी... वैसे भी मैदानी लोगों को तो पहाड़ियां और वादियां गर्मियों में ही याद आती हैं... भरी सर्द रात में कोई मसूरी का रुक कोई क्यों करे... पर नौकरी का मोह और मजबूरी जो न करवा दे कम है... मेरठ और देहरादून के बीच एक रेस्तरां है चीतल... सफर करती ज्यादातर बसों के ब्रेक यहीं लगते हैं... बस रुकी... रात के कोई दो बजे थे... मुंह से धुंआ निकल रहा था... एक ऊनी शॉल लेकर चला था घर से... देव ने शॉल पहले नेहरू स्टाइल में कंधे से कमर की ओर लपेटी... ठंड ठिठुराने लगी... तो सर ढंकते हुए शॉल में लगभग दुबक सा गया... अब स्टोरी में क्लाइमेक्स आ रहा है... यही जगह है जब कहानी ध्यान से पढ़ी जाय... उससे पहले से अगर आप ध्यान लगा रहे हैं तो ये आपकी श्रृद्धा है, पर इतनी बात तो आपको वैसे भी समझ आ जाती, जो सरसरी पढ़ जाते... खैर... हुआ यूं कि इधर देव की बस चीतल पर लगी... उधर इंदू की बस भी वहीं आराम कर रही थी... ये वो वक्त है जब देव पहली बार इंदू को देखेगा... और यहीं से इंदू के बिट्टू बनने की कहानी लिखी जाएगी... यूं तो देव को भूख जोरों की लगी थी... पर ऐसी गजब ठंड में अगर किसी चीज़ की जरूरत और तलब लगी तो वो थी... एक गर्मागरम चाय की प्याली... कहानी से हटकर मैं आपको एक जानकारी दे दूं... अगर कभी देहरादून की तरफ जाना हो तो चीतल रेस्त्रां पर ज़रूर रुकें... और रुकें तो वहां चाय का ज़ायका ज़रूर लें... ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है... चीतल की चाय बड़ी मज़ेदार होती है... इसलिए बाकी काउंटर भले खाली पड़े रहें... इस सरकारी ढाबे के चाय के काउंटर से चाय लाइन लगाकर ही मिलती है... उस वक्त चीतल पर कोई चार पांच बसें रुकी थी... कहने का मतलब ये है कि भीड़ बहुत थी... और ठंड इतनी ज्यादा थी तो आज चाय का काउंटर कैसे खाली होता... देव भी लाइन में लग गया... आप ज़रा अनुभव कर कर देखे... जबर्दस्त ठंडी रात हो, सफर का माहौल हो... और चाय की तलब लग उठे... ऐसे में इंतज़ार कहां होता... वो भी लाइन लगाकर... खैर देव इंतजार कर रहा था... अपनी बारी का... बस आधे घंटे के लिए रूकी थी... अगर इतनी ठंड में आपको आधे घंटे के लिए रात के ढाई बजे खुले जंगल में बने जंगल में रेस्त्रां छोड़ दिया जाय तो पता चलेगा कि कितने आधा घंटा कितने घंटों का होता है... पर यहां ये वक्त सिर्फ एक चाय का कूपन भर लेने में ही गुज़र गया... बारी आई... देव काउंटर तक पहुंचा... पैसे दिये... पर यहां जो कुछ हुआ उससे ठंड में भी माहौल गर्म कर दिया... लाइन से हटकर एक लड़की ने लपककर... काउंटर बॉय से कूपन छीना, और काउंटर पर पैसे रखते हुए थैंक्यू भैया कहकर निकल गई... देव इस हरकत पह पहले पहल तो हक्का बक्का सा रह गया... पर जब उसे बस का हार्न सुनाई दिया तो अपने गुस्से को वो काबू में नहीं रख पाया... दांत पीसता हुआ वो उस बदतमीज़ लड़की के पास पहुंचा और इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता एक जोरदार थप्पड़ लड़की के कान पर रसीद हो चुका था... थप्पड़ मारने के बाद देव सकपका भी गया... गुस्सा जो न करवा दे... गुस्से में आदमी कुछ सोच कहां पाता है... बस कर जाता है... मैंने आज तक यही नसीहतें पढ़ी सुनी है कि गुस्से पर काबू रखना चाहिए... या गुस्से में आदमी पर शैतानियत हावी हो जाती है... लेकिन देव के सर पर हावी हुआ शैतान तुरंत भाग भी गया... सच कहूं तो अचानक हुई हरकत के बाद देव डर गया था... ज़रा सोचिए, सरेआम... पब्लिक प्लेस पर कोई लड़का किसी लड़की को थप्पड़ मार दे... उस लड़की के घरवाले... मौजूद लोग क्या उसे छोड़ देंगे... थप्पड़ उस लड़की को पड़ा और देव सन्न रह गया... इस सर्द रात में अपने पिटने का यकीन कर देव को पब्लिक के तुरत रिएक्शन का इंतज़ार था... और रिएक्शन हुआ भी... भीड़ में पहले तो एक ज़ोरदार ठहाका गूंजा... फिर खुसुरपुसुर शुरू हो गई... कोई सामने नहीं आया... न भीड़ से... न लड़की के घर से कोई... लड़की के हाथ से चाय का कूपन छूटकर गिर गया... आंखों से दो बूंद भी... उसने एक नज़र देव को देखा... जैसे इसके बाद भी सॉरी कह रही हो... जैसे पुराना गाना बज उठा हो... गुस्से में जो निखरा है उस हुस्न का क्या कहना... कुछ देर अभी हमसे तुम यूँ ही ख़फ़ा रहना... गाड़ी का हॉर्न फिर बजा... एक मिनट भैया... वो ज़ोर से चिल्लाई और बस की तरफ भाग गई... देव की बस अब भी वहीं खड़ी थी... बिना मुसाफिरों के... ठंड... चाय की तलब... सब गायब हो गई थी... अब बस कुछ बचा था... तो मलाल... रास्ता भर... वैसे मलाल और भी ज्यादा होता अगर उसे ये पता होता कि जिस लड़की को उसने थप्पड़ मारा है उसका बाप कल ही मरा है और वो उसे ही आखरी बार देखने जा रही थी...

जारी है...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

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26/5/08

पेन की स्याही, सूखी तो समझ आया...


प्यासा छोड़ कर
एक बार फिर
थम गई बारिश
और बेचारा संमदर.. बह गया सब...
रातभर की नींद को,
गिरवी रखा है...
और दिन की चांदनी को पी गया रब...
फिर मिलेगी तंग छुट्टी,
घूम आऊंगा...
दूर... बहुत दूर... वहीं पर रह गया सब...
ज्यों नुकीली बालियां
गेहूं की, सोने की...
टकटकी में ही रहा... और कट गया सब...
मां का, पिताजी का,
बहनों- दोस्तों का
ना पता ये सारा हिस्सा... छंट गया कब...
पेन की स्याही सूखी
तो समझ आया...
स्याह सा एक दौर था... और खप गया सब...
दूर सीसा था...
और बीच में बादल
रोशनी जब ना रही तो... छंट गया सब...
किताब तूने दी मुझे
दर्दों के गीतों की...
तोहफा था पहला इसलिये यूं रट गया सब
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852337

24/5/08

राधा कैसे न जले- 4



५.
मेरी आवारगी की कहानी I,II और III पढ़ने के लिये यहां क्लिक करें
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आप कहेंगे कि तीन चार पन्ने कहानी पढ़ गये और लेखक बार बार कह रहा है कि आप अभी कहानी पढ़ेंगे... अभी कहानी शुरु होगी... पर आखिर वो शुरु कहां से होगी... सच बताऊं तो मुझे भी नहीं पता कि ये कहानी कहां से शुरू होगी... कहां खतम होगी... क्योंकि लेखक ने ये कहानी जल्दी लिखना शुरु कर दिया है... और कहानी तो अभी चल ही रही है... ये कुछ देर के लिए आप इसे इंटरटेन्मेंट चैनलों पर आने वाले आज के सोअपेरा की तरह पढ़ें... जो चलते जाते हैं... बेसिर पैर... बिना हिसाब किताब के... बिना कहानी किस्से के... और बिना मतलब के... पर उनमें भी अपना मज़ा होता है... अपना फ्लो होता है... और यही फ्लो तो जिंदा होने का अहसास कराता है... इंदू को घर जाना था... पापा से मिलना था... पहली बार... आखिरी बार... और भरोसा भी नहीं था कि मिल भी पाएगी या नहीं... इंदू ने कभी अपने पापा को नहीं देखा... तस्वीर में भी नहीं... ये रिश्ता उसके लिए सिर्फ लोगों की किस्सागोई था... जो कह दे मान लेगी... पर पापा का एक खत ज़रूर आया था एक बार... और बकौल खत इंदू को पता चला कि उसके पापा उसे अपनी जान से भी ज्यादा चाहते थे... इस तिलिस्मी से रिश्ते और उस खत से उसे सिर्फ इतना पता चल सका कि उसकी भलाई के लिए ही उसे बचपन में ही बोर्डिंग भेज दिया गया था और उसके घरवाले उसके हितैषी हैं... जो भी हो न तो इंदू ने उस खत के ज्यादा मतलब निकाले और न कई कई बार पढ़ा... हां हमेशा के लिए सहेज कर ज़रूर रख लिया... आसाम की हवा खुली थी... वो आजाद थी... न घर की कोई बंदिशें कभी उस पर थीं और न समाज की... लेकिन वो कभी नहीं समझ पाई कि ऐसी आजादी के लिए यहां इतनी हाय-तौबा क्यों हो रही है... बस की कोने वाली सीट मिली थी उसे... और बारिश हो रही थी... वैसे बारिश से भी इस लड़की का पुराना रिश्ता है... कैसे...? अब सब एक साथ जान लोगे क्या...? अभी तो कई पन्ने भरने हैं... और कहानी का कोई इरा सिरा नहीं... खैर... मुआफ करना मुझे ज़रा बात घुमा फिरा कर करने की आदत है... हां तो मैं कह रहा था कि उसे अपनी आजादी अच्छी नहीं लगती थी... बुखार आ जाता था तो उसका मन होता वॉर्डन हाउस में बैठे डॉक्टर की कडुई क्रोसिन और कफ सिरप से आई नींद की जगह किसी अच्छी सी गोद में चुपचाप दुबक जाए... और कोई चूड़ियों भरा हाथ उसके सर पर पट्टियां रख दे... पर आज़ादी में ये मुमकिन नहीं था... आज़ादी उसे घुटती थी... बहुत दिन हो गए थे डांट सुने... उसके सब दोस्त बड़े हो गए थे सो अब न टीचर डांटते थे औऱ न ही वार्डन बात बात पर टोकती थी... पर कभी कभी टीवी के सास बहू के किस्से देखकर उसे लगता ज़रूर था कि सास ज़रूर ऐसी ही होती होगी... वार्डन से पहले डर लगता था... फिर डरना भूल गई... वार्डन से भी... जिंदगी से भी... अब डर की जगह अजीब सा लगता था... आज ज्यादा से ज्यादा उसे घबराहट का नाम दे सकते हैं... डर का नहीं... ऐसी ही घबराहट होती थी जब १५ अगस्त को बोर्डिंग होस्टल पर तिरंगा फहराने की बारी आती थी... तीन दिन पहले से प्लम्पलेट बांट दिये जाते थे... दीवारों पर मार्क्स के नारों के साथ चेतावनियां होती थीं... तिरंगा न फैराने की हिदायतें होती थीं... लाल सलाम की सलामी और गरमी अचानक बढ़ जाती थी... प्रसिपल गुपचुप रात में तिरंगा फहराते और रात में ही उतार लेते... रात में तिरंगा नहीं फहराना चाहिए, उन्हें पता था... पर उस खौफ का क्या जो दिनों दिन बढ़ता जाता था... हॉस्टल की छानबीन शुरू होती... लड़कों के कमरों की तलाशी शुरु होती... पता नहीं वक्त करवट ले रहा था या दौर... कोई यकीन नहीं कर पाता था कि क्लास का सबसे होशियार लड़का... सबसे सीधा शरीफ लड़का बागी हो गया है... किसी को इल्म भी नहीं हो पाता था कि वो अपने तकिये के नीचे खंजर और डैडी की तस्वीर के पीछे ऐके सेंतालीस छिपाए है... अगस्त की शुरुआत हुई नहीं कि आर्मी मूवमेंट बढ़ जाता था और इसका पता भी तभी चलता था जब उसी सीधे सादे होशियार लड़के के मर्तबान में मां के प्यार से सराबोर कच्ची आमी का अचार नहीं, खून के खतरनाक इरादों से सराबोर आरडीएक्स मिलती... ऐसा कई बार हुआ था... तब घबराहट हो जाती... यकीन फिर छलनी हो जाता था... पर कुछ दिनों में फिर सब शांत हो जाता था... सावन जाते जाते पत्तों से खून घुल जाता था... और अगस्त के आखिर तक फिर नदी के किनारों पर बच्चे पिकनिक मनाना शुरू कर देते थे... उन्हीं नदियों के रास्ते बस चली जा रही थी... और इंदू खामोश थी... पता नहीं क्या चल रहा था उसके मन में... आप थोड़ी देर के लिए इंदू बनकर देखिये... सब पता चल जाएगा...

जारी है...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

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तुम आना कभी मेमना लेकर... पहाड़ों से...


रोज़ बदलता हूं कम्प्यूटर के डेस्टोप से चेहरा अपना
औऱ पीछा छुड़ा लेता हूं तुझ से...
रोज़ लिखता हूं एक खत तुझे याद कर...
रोज़ गांठता हूं दोस्ती नए लोगों से...
और रोज़ भूल जाता हूं तुझे...
इस कदर कि तुम फिर याद नहीं आती...
जब तक मैं अगले दिन फिर न भुला दूं तुम्हें...
यकीन न आये तो देख जाना...
तुम आना कभी मेमना लेकर... पहाड़ों से...
पेड़ की उलझी डाल से झांककर ढूढ़ना मुझे...
और पूछना मेरा हाल...
वैसे मुझे तो तुमने भी भुला दिया होगा ना अब तक...

देवेश वशिष्ठ खबरी
9811852336

16/3/08

राधा कैसे न जले- 3



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जैसा कि मैंने पहले ही बताया कि इंदू अपने आप में कम्पलीट कहानी है... लेकिन हम तो बात बिट्टू की कर रहे हैं... इसलिये उसी की बात में आगे बताऊंगा... बिट्टू को समझने के लिय इंदू को समझना जरूरी था इसलिये बता दिया... तो मैं बता रहा था कि इंदू बदल गई थी... क्योंकि वो बिट्टू बनने वाली थी... आर्फन हाउस में बच्चों को पढ़ाने जाने लगी औऱ फिर उसकी दुनिया उन्हीं की हो गई... जिनके मां-बाप या तो नहीं थे... या उनका कुछ पता नहीं था... अनाथ बच्चों के साथ वो ऐसे रच बस गई कि दीन-दुनिया भूल गई... मां बाप का प्यार कैसा होता है ये उसके लिये भी एक सवाल ही था... पर इतना पता चल गया था कि मरियम की मूर्ती से वार्डन क्यों बहलाती थी... ये सवाल उसके लिये तो बिल्कुल ऐसा था जैसे अंधे होली खेलें औऱ उन्हीं से कोई बच्चा पूछ बैठे कि हमने कौन कौन से रंग खेले... ये हरा कैसा होता है... पर उसकी जिंदगी में तो अभी बहुत से रंग बचे थे... आसाम मे दुनिया हरी थी... कभी कभी लाल हो जाती थी... लाल सलाम आसाम में जोर लगा रहा था... उसे वहां से डर लगने लगा था... हर बड़े को वो घबराकर देखती थी... बस बच्चे थे जिनके साथ वो महफूज़ महसूस करती... लेकिन एक दिन बुलावा आ गया... घर से... उसका इंतज़ार हो रहा था... बेसब्री से... पहली बार... १२ साल में पहली बार... सब उसकी राह देख रहे थे... सब चाहते थे कि आखरी बार बेटी बाप को देख ले... आखरी बार... या पहली बार... जो भी कह लो... पर इंदू को घर जाना था... घर यानी मसूरी... वादियों के बीच... यहीं से शुरु होनी थी एक और कहानी... मेरी कहानी... जो आप पढ़ रहे हैं... वादियां... मेरी आवारगी की कहानी...
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जारी है...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

27/2/08

राधा कैसे न जले- 2

वादियां... मेरी आवारगी की कहानी-I देखने के लिये यहां क्लिक करें-



बिट्टू यानि इंदू... अपने आप में एक कम्पलीट कहानी... इंदू ने अपने पिता को जिंदगी में बस एक बार देखा... जिंदा नहीं... कफन में लिपटा हुआ... उसका अधिकार अपने पिता पर बस इतना ही हो पाया कि उसके आने तक उनकी अर्थी रोक ली गई थी... इंदू को बचपन में ही बोर्डिंग भेज दिया गया था... इंदू की मां को वो पसंद नहीं थी... क्यों... इसका जबाब भी उसे पिता की मौत के बाद ही मिल सका... बचपन से आसाम में रही... बोर्डिंग स्कूल में... नर्सरी से लेकर बारहवीं तक... रिश्ते अहमियत रखते हैं ये उसे तब पता चलता जब होस्टल की फीस औऱ जेबखर्च उसके स्कूल एकाउंट में क्रेडिट कर दिये जाते थे... कभी कभी भाई मिलने आ जाता था तो पता चलता था कि लड़कों से कुछ औऱ भी रिश्ते बनाये जा सकते हैं... हर साल उसकी दुनिया बदल जाती थी... बोर्डिंग में खूब रैगिंग...ली भी औऱ दी भी...उत्तर औऱ पूरब में कुछ परेशानी है... ये उसे वहीं समझ में आया... नये एडमीशन हुए तो सब खुश हो जाते थे... पर पहली बार जब असम के उस स्कूल में गोलियां चली तो जिंदगी भी समझ में आ गई... बिट्टू तब तक बिट्टू नहीं थी... वो इंदू थी... छ: साल की इंदू... घर से दूर गई तो रोई थी या नहीं उसे याद नहीं... पर उसने कभी घर को याद भी नहीं किया... असम में इंदू ने दुनियादारी की पूरी तालीम पाई... जब देह भरने लगी तो पूरब की चपटी नाक वाली लड़कियों के बीच इंदू ही सबसे खूबसूरत लगती थी... लड़के आगा पीछा करने लगते औऱ वो किसी को घास नहीं डालती थी... या यूं भी कह सकते हैं कि उसे गुरूर था अपने चेहरे-मोहरे पर... घर का प्यार मिला नहीं तो जहां से भी मिला... बटोरती चली गई... लेकिन दो दिन औऱ तीन रातों की दोस्तियों से जब नकाब हटता तो इंदू का बड़ा बुरा लगता... हालांकि इंदू से कोई ज़ोर जबर्दस्ती की गुस्ताखी नहीं कर सकता था... लेकिन उम्र है... अगर कोई रोक-टोक न हो तो उड़ने की चाहत किसकी नहीं होती... कभी- कभी उसे अपनी ही इस आजादी से घुटन होने लगती... पर माहौल मिले तो कौन कम्बख्त घुटने बैठेगा... बोर्डिंग के लड़के बड़े घरों के बिगड़े शहज़ादे थे... अफम... चरस...दारू औऱ मारपीट... इसी दुनिया में मस्त औऱ व्यस्त रहते थे... अब सोहबत से कब तक कोई खुद को दूर रख सकता है... कुल मिलाकर हुआ ये कि रोज लड़कों को चरस पीते देख एक दिन उसका भी मन कर आया... लड़कों ने बहका दिया औऱ इंदू लगा बैठी ड्रग का इंजेक्शन... बहक तो गई पर संभाल नहीं पाई... इंदू के मुंह से झाग आने लगे तो उसके साथी घबरा गये... हास्पीटल में भर्ती कराया तो बात खुल गई... इंदू के घर वालों को बुलाया पर कोई नहीं आया... इंदू को इन्जेक्शन का ज़हर रिएक्शन कर गया औऱ पूरे चेहरे पर दाने निकल आये... इंदू ठीक तो हो गई तो उसे लगा कि सब उससे कटने लगे हैं... जो कल तक आगा पीछा करते थे, अब हाय हलो भी नहीं करते... कभी कभी कुछ झटके इंसान को बिल्कुल बदल देते हैं... इंदू भी बदल गई थी...

जारी है...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

भूल...

रोज़ बदलता हूं कम्प्यूटर के डेस्टोप से चेहरा अपना
औऱ पीछा छुड़ा लेता हूं तुझ से...
रोज़ लिखता हूं एक खत तुझे याद कर...
रोज़ गांठता हूं दोस्ती नए लोगों से...
और रोज़ भूल जाता हूं तुझे...
इस कदर कि तुम फिर याद नहीं आती...
जब तक मैं अगले दिन फिर न भुला दूं तुम्हें...
यकीन न आये तो देख जाना...
तुम आना कभी मेमना लेकर... पहाड़ों से...
पेड़ की उलझी डाल से झांककर ढूढ़ना मुझे...
और पूछना मेरा हाल...
वैसे मुझे तो तुमने भी भुला दिया होगा ना अब तक...

22/2/08

राधा कैसे न जले- 1



.
..
...
'तो क्या सोचा तुमने देव...'
बिट्टू की आवाज ने लम्बी खामाशी तोड़ी... कांच के गिलास में चाय शर्बत हो गई थी... पर अभी देव को उसे पीने लायक होने का इंतज़ार था... दो दिन से लगातार बारिश हो रही थी... मसूरी में मौसम की पहली बर्फ गिरी थी... करनपुर मे किराये के कमरे की छत से अक्सर देव औऱ बिट्टू मसूरी और धनोल्टी की पहाड़ियों को निहारा करते थे... देव यानि देवराज़... औऱ बिट्टू यानि इंदु... इंदु को देवराज प्यार से बिट्टू बुलाता था...
बिट्टू धनोल्टी की पहाड़ियां देखो कैसी सफेद हो गई हैं...
सुंदर हैं ना...
देवराज ने एक घूंट में चाय की फार्मेलटी पूरी कर दी... वो अक्सर ऐसा ही किया करता था... कॉफी शाम को तैयार करता... रात भर लिखता रहता... औऱ सवेरे के पहले पहर गटागट पीकर सो जाता... हॉट कॉफी को कोल्ड करके पीने में या तो उसे मज़ा आता था या चाय औऱ कॉफी उसके लिये बस एक ज़रिया होती थी कि सिलसिला चलता रहे...
लेकिन देव ये तो मेरी बात का जबाब नहीं है...
ऊं... देव ने कुछ इस अंदाज़ में पूछा जैसे वो उसके सवाल पर ध्यान नहीं दे पाया है...
बिट्टू ने सवाल दोहराया... तुमने क्या सोचा है देव...
कांच के खाली गिलास में खोए खोए उसने कहा...
पता नहीं यार... कुछ नहीं पता...
घबराई सी नज़रों से दोनों ने एक दूसरे को देखा... औऱ फिर हिचकियां बंध गई... हलकी हलकी बारिश हो रही थी... बिट्टू को बुखार आ गया...
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बिट्टू को बुखार आ गया था... देवराज दिल्ली से पत्रिकारिता की पढ़ाई कर रहा था लेकिन उसके दिल में एक अजीब सी आवारगी थी... यही आवारगी उसे देहरादून तक खींच लाई... एक प्रोडक्शन हाऊस में कैमरामैन की नौकरी कर ली... तनख्वाह आठ हज़ार रूपये महीना... बहुत थे तब अकेली जान के लिए... पर देवराज के लिये नहीं... मैं ये सब इसलिये बता रहा हूं जिससे आप कोई पूर्वाग्रह बनाने से पहले देवराज या बिट्टू के देव को समझ जाएं... इस कहानी के देव का करेक्टर कुछ ऐसा है जिसे अकेला रहना पसंद है... पर चाहता है कि कोई हो जिसे पाल सके... जिस पर सब लुटा सके... जिसका दीवाना हो जाये... लुटने औऱ कमाने की चाहत ही देवराज की खासियत है... औऱ कोई खोट नहीं... कोई एब नहीं... पर कानों का कच्चा है... दिल का भी... ख्वाब इतने कि सवेरे आंखें खोलने का मन नहीं करता... पर उस पूरी रात देव को नींद नहीं आई... वैसे अक्सर ऐसा होता था... बिट्टू की तबियत बिगड़ती जा रही था... बिट्टू को तेज़ फीवर था... पर उसे सहन करने की आदत थी... वैसे ये आदत दोनों को थी... औऱ इसी लिये दोनों के बीच खूब पटती थी... दोनों अक्सर मिला करते थे... पर जमीन पर बिछे गद्दे पर दूर दूर बैठे रहते थे... और दूरी को सहन करते रहते थे... किसी को पहल करना गवारा नहीं था... देव बिट्टू के लिये चाय बनाता... तब तक बिट्टू देव का कमरा सजाती... पर दूर-दूर... खामोश-खामोश... बड़ा अनकहा सा प्यार था दोनों के बीच... पर प्यार बहुत था... इतना कि देव रात में दो बार बिट्टू के पीजी तक चक्कर लगा आया था... फोन किया तो पता चला बंदिश है... रात को वो नहीं आ सकती... सवेरे चार बजे देव के कमरे पर बिट्टू ने नॉक किया... देहरादून में अब बर्फ नहीं पड़ती पर बुखार में तपती बिट्टू बारिश में एक बार फिर भीग गई थी... हालांकि देव उसका हालचाल लेने औऱ एक नज़र देख भर लेने के इंतज़ार में था... पर इस तरह उसने कभी नहीं सोचा था... ये क्या पागलपन है पगली... देव ने भीगी बिट्टू को कसकर गले से लगा लिया... पहाड़ों पर अक्सर बारिश के साथ ठंड़ी हवाएं चलती हैं... उस रोज भी चल रहीं थीं... तारीख २६ जनवरी २००७... ठंड जैसे कुछ कर बैठने की कसम खाकर आई थी... उस रोज़ शायद कुछ हो जाना था...
देव मुझसे सहन नहीं हो रहा...
बस बिट्टू इतना बोल सकी... उसमें जैसे इतनी ही ताकत बची थी... बिट्टू निडाल हो गई... ठंड में बुखार से तप रही थी... माथा जल रहा था... हाथ बिल्कुल ठंडे पड़े थे... बोल भी ऐसे निकले जैसे गले में आवाज़ निकलने की जगह ही नहीं बची हो... देव ने बिट्टू को सम्हाला...
देव ने जल्दी हीटर चलाया... पर गीले कपड़ों में बिट्टू की तबियत बिगड़ती जा रही थी... देव ने बिट्टू को उठाने जगाने की बहुत कोशिश की... पर उसे कोई होश नहीं था... लग रहा था कि बस उसकी सांस उखड़ रहीं हैं... पहली बार देव उसके इतने करीब था... लेकिन परेशान... घबराया हुआ औऱ लाचार सा... स्वेटर... कोट... शाल... कंबल... देव के पास जो कुछ था उससे बिट्टू को ढंक दिया... जो हो सका करने की कोशिश की... जैसे भी बिट्टू को राहत मिल सकती थी किया... पर बिट्टू बुरी तरह तप रही थी... देव की घबराहट इस कदर बढ गई कि आंखें भर आईं... गला रुंध गया... बस एक शब्द निकला... आई लव यू बिट्टू... प्लीज आंखें खोलो बिट्टू... प्लीज...
देव की हिचकी बंध गईं थीं... बिट्टू ने बमुश्किल आंखें खोली... होठों से कुछ बुदबुदाने की कोशिश की... पर बोल नहीं पाई... बिट्टू बिल्कुल राजकुमारी लग रही थी... किसी राजकुमार की गोद में सिमटी राजकुमारी...
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जारी है...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

6/2/08

keep quite my dear…



Quite.. keep Quite my dear…
Let me feel warmth
in this child night…
Let me think of no mind…
Let me die for some time
& let me feel my Sole other than me…
Keep Quite my dear…
Let me know…
Let me know closeness of our relation…
Let me know the pleasure with out you & me…
Let me know ourselves…
Let me cry with out Sound my dear…
Keep Quite my dear…

… Devesh k Vashishtha ‘Khabri’
9811852336
31/01/08