9/3/09

राधा कैसे न जले- 12


देव तुम मुझसे शादी करोगे? कितना मजा आयेगा ना- मैं रोज तुम्हें सताऊंगी- और तुम रोज मुझे चुड़ैल कहा- मैं बिल्कुल बुरा नहीं मानूंगी- अच्छा एक काम करते हैं- सुरकंडा देवी के मंदिर चलते हैं- वहां पर हम शादी कर लेंगे- ठीक है ना- तुम दुल्हन बन जाना और मैं दूल्हा बन जाऊंगी- फिर सुरकंडा माता के सामने की पहाड़ी पर टहलेंगे- बर्फ में खूब कूदेंगे- कितना मजा आयेगा ना- चलो ना देव- अभी चलो- तुम ना कभी नहीं सुनते- चलो ना-

बिट्टू- देव झुंझला जाता था- वो गंदा था- बिल्कुल गंदा- वो प्यारी सी बिट्टू को डांट देता था- जोर से- कभी कभी तो सबके सामने- पर बिट्टू फिर भी कुछ नहीं कहती थी- रात के करीब 2 बजे थे- देव देर रात घर लौटा था और कानों में आई पॉड का ईरयपीस लगा कर सो जाता था- देव कटता जा रहा था- घर से- समाज से- अच्छाईयों से- बुराईयों से- देव सबसे कट गया था- रेडियो पर पर रेखा का गाना बज रहा था- हम भूल गये सब बात- मगर तेरा प्यार नहीं भूले- देव, बिट्टू को भूल नहीं पा रहा था- चाहकर भी- लेकिन आज हिचकियां नहीं आयीं- देव को ये अच्छा नहीं लग रहा था- हर रोज देर रात तक आने वाली हिचकियों की आदत पड़ गई थी उसे- लेकिन आज शायद ज्यादा देर हो गई थी- शहर में बड़ी घटना हो गई थी- प्राइम टाइम लंबा खिंच गया- एंकरिंग के बाद कुछ नेता टाइप लोगों के साथ चाय नाश्ता हो गया था- और उसके बाद अगले दिन की प्लानिंग- इस बीच एक आध बार हिचकी आईं थीं लेकिन शायद काम में ध्यान नहीं रहा- वैसे देव ने बिट्टू पर कभी ध्यान दिया भी कहां- फोन भी करती तो वही- याद भी करती तो वही- देव को तो बस हिचकियां आतीं थीं- पर आज रेखा के गाने ने उसे फिर वादियों की याद दिला दी थी- हम भूल गये हर बात- मगर तेरा प्यार नहीं भूले- बिट्टू की जिद आज बार बार याद आ रही थी- ‘देव चलो हम शादी कर लें’- काश उस दिन चिड़चिड़े देव ने उस दिन मना न किया होता- न कहा होता कि ‘हथेली पर सरसों नहीं जमती बिट्टू’- वक्त लगता है- और बिट्टू बोली- देव ये हथेली पर सरसों कैसी होती है- क्या उस सरसों के फूल भी उतने ही ताजा होते होंगे- और वो सरसों उगती कैसे होगी- उस सरसों का साग बन पाता होगा ना- अच्छा छोड़ो ये बताओ वो सरसों पक जाती होगी तो क्या होता होगा- देव बताओ ना कौन उगाता होगा हथेली पर सरसों- उसके फूल भी तुम्हारी तरह हंसते होंगे ना- नहीं तुम्हारी तरह नहीं, मेरी तरह- वैसे भी तुम तो कम कम हंसते हो ना- उस पर ओस की बूंदें कैसी अच्छी लगती होंगी ना- उसके फूल कभी नहीं रोते होंगे ना- देव बताओ ना- तुम हमेशा चुप क्यों रहते हो- देव न तब कुछ बोलता था और न अब बोल रहा था- पता नहीं किस मिट्टी का बना था देव- बिट्टू सुरकंडा देवी जाने की जिद करती और देव टहला देता- कहानी बहुत लंबी है लेकिन पहले मैं आपको सुरकंडा देवी के बारे में बता दूं- मसूरी से टिहरी की ओर जाते वक्त पड़ता था सुरकंडा देवी का मंदिर- ये जगह बिट्टू को बहुत पसंद थी- सुरकंडा देवी के मंदिर से शुरू हो जातीं थी धनोल्टी की बर्फ और लंबे लंबे बॉज, बुराश औऱ चीड़ के घने जंगलों से लदी ढकी पहाडियां- बिट्टू सुरकंडा देवी के मंदिर तक पैदल चली जाती थी- पहाड़ों की चढाई और ढलान उसका खिलौना थीं-

कभी देव ने उसे थककर सुस्ताते नहीं देखा- और देखा भी हो तो क्या पता- देव किसी भी चीज पर ध्यान ही कहां देता था- अजीब सा था देव- पर ये जगह देव को भी बहुत अच्छी लगती थी- धनौल्टी के चीड़ के पेड़ों से सर्दियों के बाद पीली बारिश होती थी- और देव बिट्टू का मजाक बनाता- देखो बिट्टू तुम्हारे चंदा मामा पुष्प वर्षा कर रहे हैं- बिट्टू को धनौल्टी मसूरी से ज्यादा खूबसूरत लगती थी- एक तो इसलिये कि वहां कम लोग जाते थे- दूसरा इसलिये भी कि यहां अभी ज्यादातर चीजें अनछुई थीं- ज्यादातर पेड़ों को अभी टूरिस्ट की नजर नहीं लगी थी- पहाड़ियों पर कुरकुरे के रैपर नहीं होते थे- और बारिश में रोड के बीचों बीच हर 100 मीटर पर झरने बन जाते थे- बिट्टू उनमें खूब छपाक छपाक करती थी- देव मैदानों में रहने वाला था- इसलिये ठंड से डरता था- लेकिन बिट्टू मस्त मौला थी- बीमार हो जाती और ठीक भी- लेकिन देव बीमार कम ही होता था- लेकिन वो हमेशा उस मस्ती से रह जाता था- हालांकि मन देव का भी बहुत करता था- पर फिर भी...

मसूरी से सुरकंडा देवी के मंदिर तक जाने में लगता जैसे पृकृति के जितने रंग संभव है वो सब यहां बिखरे थे- पता नहीं धरती पर कितनी जगह स्वर्ग है- लेकिन देव के साथ जब बिट्टू वहां घूमने जाते थे- तो सारी मसूरी- पूरा धनोल्टी और हर पहाड़ पर मस्ती छा जाती थी- सिर्फ देव को छोड़कर- कितना बोर है ना देव- पर न जाने क्यों बिट्टू को वही अच्छा लगता था- धनौल्टी में घूमने फिरने के लिए पर्यटक कम ही जाते थे- तब तक भीड़ भाड़ से दूर था धनौल्टी- आज भी हो शायद- पर मुझे तो जमाना हो गया घनोल्टी गये- देव बिट्टू से तो कुछ नहीं कहता था लेकिन मुझे वहां के किस्से सुनाया करता था- मुझे देव से जलन होने लगी थी- जब आता तभी लगता था कि और तरोताजा हो गया है देव- अब ये पहाड़ी हवाओं का असर था या बिट्टू का प्यार- लेकिन देव तब खुश रहता था- उसके कानों में ईयर फोन पर गाने नहीं बजते थे- तब वो खुद गुनगुना लेता था- जोर जोर से- चीख चीख कर- और एक बार भी बिट्टू नहीं कहती थी- बस करो देव- बहुत बेसुरा गाते हो तुम- रास्ते भर अंताक्षरी चलती थी- और तीन घंटे का सफर कैसे कट जाता था पता ही नहीं चलता था- धनोल्टी तक पहाड़ बहुत ऊंचे हो जाते हैं- लेकिन देव और बिट्टू के मन में शायद ही कभी आया हो कि इतने लाचार हो जाएंगे- उनका कद इन पहाड़ों के सामने बहुत छोटा रह जायेगा- आसमान छूते देवदारों ने देव को कभी नहीं चिढ़ाया था- लेकिन अब देव की आंखें कहीं कहीं ही उठती थीं- देव पागल सा होता जा रहा था- और लोगों ने ये कहना भी शुरू कर दिया था- यहां देव को कविता लिखने के लिए कभी कोई कल्पना करने की जरूरत नहीं पड़ी थी- अब देव को लिखने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है- ओफ्फो... मैं आपको धनोल्टी के बारे में बता रहा था फिर बात फिर घूमकर देव और बिट्टू पर घूम गई-
आजादी से पहले तक मुसाफिर घूमने फिरने के लिए धनौल्टी नहीं जाते थे। यहां टिहरी नरेश की इस्पेक्शन बिल्डिंग थी। सन् 1950 में टिहरी नरेश की रियासत हिन्दुस्तान में मिल गई और धनोल्टी की इस्पेक्शन बिल्डिंग को तहसील बना दिया गया- धनौल्टी तहसील में नायब तहसीलदार के संरक्षण में सभी सरकारी कार्य होते हैं। लेकिन सर्दियों में धनौल्टी में इतनी ठंड पड़ती है कि वहां रुक पाना मुश्किल हो जाता है इसलिये ये तहसील ब्लाक मुख्यालय थत्यूड में स्थानांतरित हो जाती है- छोटा सा है धनोल्टी- मसूरी से भी छोटा- देव और मसूरी जब यहां की गलियों में दौड़ लगाते थे तब यहां सरकारी ऑफिस के नाम पर एक तहसील- एक बैंक- एक छोटा सा पोस्ट ऑफस और एक जूनियर हाईस्कूल है. यहां की मूल आबादी भी सिर्फ चार पांच सौ ही थी- सब एक दूसरे को जानते थे- वैसे आबादी ज्यादा भी होती तो भी शायद सब एक दूसरे को जानते- मैंने पहले भी बताया था ना- पहाड़ी नदियों में कचरा नहीं होता- अभी यहां के लोगों में दुनियादारी हावी नहीं हुई है- सर्दियों में धनौल्टी में 2-3 फुट तक बर्फ पड़ती है- कई बार तो यहां एक सीजन में 8-10 बार तक बर्फ पड़ती है। यही मौसम बिट्टू को बुलाता था- बार बार... बार- बार... और वहीं पास में था सुरकंडा देवी का मंदिर- धनौल्टी जाने वाले पर्यटक सुरकंडा माता के दर्शन करने जरूर जाते थे- बिट्टू कहती- देव सुरकंडा माता से जो मांगो पूरा हो जाता है- पता नहीं उसने क्या मांगा था- और अगर कुछ मांगा भी था- तो वो उसे मिला क्यों नहीं?
जारी है-
देवेश वशिष्ठ खबरी- 09719432410

6/3/09

मेरा स्वर्गवास


एक सपना देखा अभी,
आधी रात को
और फिर नहीं लगी आंख...
अब धुंधला सा याद है बस
सीढ़ीदार खेत थे पहाड़ियों के...
और एक ढलान पर एक गांव
सीढ़ियों के रास्ते वाला गांव
टूटी सीढ़ियां... पहाड़ी लाल पत्थरों की
बीच में कुछ घर थे...
बुरांश के पेड़ों से ढंके...
एक हाथी था...
उस पर इंद्र...
उसकी शक्ल मिलती थी मुझसे बहुत कुछ
वो स्वर्ग था...
आज रात में फिर स्वर्गवासी हुआ...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

गीली- गीली...


मुझे फेंक दिया किसी ने वहां से
शायद चुक गये थे मेरे पुण्य पिछले जन्मों के
या शायद मंहगा था वो स्वर्ग
मिट्टी के कुल्हड़ों वाला...
गर्म दूध वाला...
चढ़े और ढ़ले रास्तों वाला...
उस पहाड़ी का वो गीला मौसम
बहुत याद आता है...
और तुम भी,
गीली- गीली...
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देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

ये वादा रहा...


तुम्हारी याद को लिख लेता हूं सबके लिये
ये सोचे बगैर कि सब सवाल करेंगे
और निरुत्तर हो जाऊंगा मैं...
तुम्हारी याद को रख लेता हूं बटुए की उस जेब में...
जहां रखा है शगुन का सिक्का,
कि पर्स खाली न रहे कभी...
तुम्हारी याद को सी लिया है आज
फटे घाव के साथ...
कि तुम मिल जाओ मेरे खून में...
और अगले जन्म में...
बेटा बनूं तुम्हारा...
या
तुम बेटी मेरी।
ये वादा रहा...
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देवेश वशिष्ठ खबरी