15/9/08

एक हवेली, एक कहानी


पुरानी हवेलियां बूढ़ी औरतों की तरह होती हैं. इठलाते बचपन की तरह किसी ने उन्हें प्यार से उठाया. जवान अल्हड़ नक्काशियां की. उनकी चुनरी पर धानी, नीले, लाल, और चटख रंग भरे. उन नशीली हवेलियों ने वो दौर भी देखा जब बुढ़ापे में उनके दरवाजे की रौनक कम होने लगी. राजस्थान के राजपूताना किले, शाही छतरियां और रेगिस्तान में बाबड़ियां इतिहास की गाढ़ी मोटी जिल्द में लिपटी किसी कहानियों की किताबों के पन्ने की तरह लगती हैं. पर हर हवेली की देहरी और हर देहरी का चौबारा एक-एक कहानी है. जो अब भी वैसे ही सुनी जा सकती है. उस कहानी के पात्र दीवारों से अब भी चिपके हैं. भित्ति चित्र बनकर.
राजस्थान की जमीन पर कई जगह प्रकृति ने उजास रंग नहीं भरे तो राजस्थानी आवारगी ने सतरंगी रंग में सराबोर ‘सवा सेर सूत’ हर सिर पर बांध लिया. रंगों की इसी चाह ने रेतीले मटीले राजस्थान के हर घर को हवेली बना दिया और हर दीवार को आर्ट गैलेरी.
राजस्थान का शेखावाटी ‘ओपन आर्ट गैलेरी’ कहा जाता है. चूरू, झुंझनू और सीकर जिलों को मिलाकर एक शब्द में ‘शेखावाटी’ कहने का रिवाज है. इसी शेखावाटी में झुंझनू जिले का नवलगढ़ हर सुबह सूरज से रंगों की तश्तरी लेकर हर घर को हवेली बना देता है.
नवलगढ़ में तकरीबन 700 छोटी-बड़ी हवेलियां हैं. अगर सिर्फ भव्य और बड़ी हवेलियों की बात करें तो भी 200 का आंकड़ा तो पार हो ही जाएगा. नवलगढ़ की हवेलियों के बारे में सुना था. पर जब देखने पहुंच गया तो लगा कि सावन का अंधा हो गया हूं हर तरफ सिर्फ रंग दिख रहे हैं. दीवारों पर उकरे रंग. छतरियों पर छितरे रंग. छज्जों में छिपते रंग. आलों में खोए रंग. राजा रंग. दासी रंग. सैनिक रंग. सेठिया रंग. अगर मुझे कोई दोबारा व्याकरण गढ़ने की इज़ाजत दे दे तो इन हवेलियों में बैठकर मैं रंगों को यही नाम दे सकूंगा.
जितने रंग उतनी हवेलियां. जितनी हवेलियां उतनी कलाकारी. और जितनी कलाकारी उतनी कहानियां. ‘जित देखूं, तित तूं’ हर गली में हवेली. हर घर हवेली. मोरारका की हवेली... पोद्दार की हवेली... सिंघानिया की हवेली... गोयनका की हवेली... जबलपुर वालों की हवेली... जोधपुर वालों की हवेली... कलकत्ता वालों की हवेली... सेठ जी की हवेली... सूबेदार की हवेली... राजा की हवेली... हर मौसम की हवेली... जैसे पुराना रोम जूलियर सीजर जैसे उपन्यासों से झटके से बाहर उतर पड़ा है और हर काला हर्फ एक हवेली बन गया है.

नवलगढ़ के इस रंगमहल से जब दोबारा चेतना में आया तो पहला सवाल उठा- किसने बनवाईं इतनी हवेलियां. एक साथ... एक जैसी... और यहीं क्यों... इतनी सारी...
वहां के लोगों से पूछा- जितने मुंह उतनी कहानी... हर कहानी की अलग वजहें... और हर वजह के अपने अपने सवाल... खबरी मन नहीं माना तो किताबें कुरेदनी शुरू कीं. किसी ने बताया कि यहां से सिल्क रूट गुजरता था. दो सदी पहले तक यहां 36 करोड़पतियों के घराने थे. एक हवेली बनी. दूसरी बनी. तीसरी... चौथी और फिर पूरा शहर बस गया. खाटी हवेलियों का शहर. शेखावाटी के लिखित अलिखित इतिहास के जानकारों के मुताबिक पन्द्रहवीं शताब्दी(1443) से अठारहवीं शताब्दी के मध्य यानी 1750 तक शेखावाटी इलाके में शेखावत राजपूतों का आधिपत्य था. तब इनका साम्राज्य सीकरवाटी और झुंझनूवाटी तक था. शेखावत राजपूतों के आधिपत्य वाला इलाका शेखावाटी कहलाया. लेकिन भाषा-बोली, रहन-सहन, खान-पान, वेष भूषा और सामाजिक-सांस्कृतिक तौर-तरीकों में एकरूपता होने के नाते चुरू जिला भी शेखावटी का हिस्सा माना जाने लगा. इतिहासकार सुरजन सिंह शेखावत की किताब ‘नवलगढ़ का संक्षिप्त इतिहास’ की भूमिका में लिखा है कि राजपूत राव शेखा ने 1433 से 1488 तक यहां शाशन किया. इसी किताब में एक जगह लिखा है कि उदयपुरवाटी(शेखावाटी) के शाशक ठाकुर टोडरमल ने अपने किसी एक पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने के स्थान पर भाई बंट प्रथा लागू कर दी. नतीजतन बंटवारा इतनी तेजी से हुआ कि एक गांव तक चार-पांच शेखावतों में बंट गया. यही भूल झुंझनू राज्य में भी दोहराई गई. इस प्रथा ने शेखावतों को राजा से भौमिया(एक भूमि का मालिक) बना दिया. झुंझनू उस वक्त के शाशक ठाकुर शार्दूल सिंह के पांच पुत्रों- जोरावर सिंह, किशन सिंह, अखैसिंह, नवल सिंह और केशर सिंह की भूमियों में बंट गया. नवल सिंह का नवलगढ़ उसी भाई बंट प्रथा का ही एक नमूना है. केन्द्रीय सत्ता के अभाव ने सेठ-साहूकारों और उद्योगपतियों को खूब फलने फूलने का मौका दिया. हवेलियों के रंग पहले संपन्नता के प्रतीक बने, और फिर परंपरा बन गये. खेती करते हुए किसान से लेकर युद्ध करते सेनानी तक. रामायण की कथाओं से लेकर महाभारत के विनाश तक. देवी- देवताओं से लेकर ऋषि-मुनियों तक... पीर बाबा के इलाज से लेकर रेलगाड़ी तक... हवेली की हर चौखट, हर आला रंगा-पुता. इंसान की कल्पना जितनी उड़ान भर सकती है, इन हवेली की दीवारों पर उड़ी. जो कहानी चितेरे के दिमाग पर असर कर गई वो दीवार पर आ गई. जो बात दिल में दबी रह गई, उसे हवेली की दीवारों पर रंगीन कर दिया गया... लेकिन एक दिन तेज़ हवा चली और उस रंगीन किताबों के कुछ पन्ने जल्दी जल्दी वक्त के साथ उड़ गए. हवेली मालिकों ने हवेली छोड़ दीं. कोई विदेश चला गया तो कोई हवेली अनाथ हो गई. जैसे एक हवेली को देखकर दूसरी बनी थी बिल्कुल उसी तरह एक पर ताला जड़ा तो दूसरी हवेलियों के दरवाजे भी धड़ाधड़ बंद होने लगे. शेखावाटी की हवेलियों के रंग फीके पड़ने लगे हैं. अचानक जैसे इठलाती हवेलियां बूढ़ी हो गई हैं. इन बूढ़ी मांओं को सहारे की ज़रूरत है. जो इन्हें देखे... देखभाल करे.
(ये लेख तहलका हिंदी पर भी छपा है, यहां पढ़ें)
देवेश वशिष्ठ खबरी
9811852336

4/9/08

राधा कैसे न जले- 10

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ठंडी होती चाय कितनी बेसब्र होती है. जैसे धीरे धीरे प्राण जा रहे हों और जिसके लिए जीवन लगा देने का व्रत लिया है वो बेपरवाह हो गया हो. देव नए दफ्तर जाता है और सवेरे की चाय का पहले कप में से अचानक जैसे कोई पहाड़ी जिन निकलता है और उसे खूब चिढ़ाता है. उसके होठों पर भी वैसी ही प्यासी मटमैली पपड़ी पड़ जाती है जैसी ठंडी होती चाय पर होती थी. थोड़ी देर बाद जिन चुपचाप फिर उसी कप में उतर जाता है और खाकी मटमैली पपड़ी में छिपकर जोर जोर से रोने लगता है. देव उससे ध्यान हटाता है और लबादे की तरह डेस्क पर पड़े अखबारों पर सरसरी नज़र दौड़ाता है. पर खबरों के काले काले अक्षरों बड़े बड़े दाड़ी मूछ वाले राक्षसों की तरह उसे डराने लगते हैं. हर खबर में वो देहरादून-मसूरी को ढूंढता है. कुछ नहीं मिलता तो अखबारों की रद्दी से मितली सी होने लगती है. उसके भी होंठ सूखने लगे हैं. वो कम्यूटर पर कुछ टाइप करना चाहता है पर कीबोर्ड से एक परी निकलकर जादू कर देती है. कोई बटन काम नहीं करता. वो जोर जोर से बटन दबाता है. अचानक वो देखता है कि वर्ड फाइल पर कुछ लिखा है. एक ही नाम. बार बार. बिट्टू का नाम. उसने चाय का कप उठाया और पपड़ी के पीछे के रोते जिन समेत पी लिया. जिन अंदर जाकर फिर परी बन गया है. उस परी के हाथ में फुलझड़ी है उसका चेहरा जाना पहचाना है. बिल्कुल वैसा जैसा वो भट्टा फाल के पास छोड़ आया था. उसके दूसरे हाथ की उंगली में चोट लगी है. बिट्टू रो रही है. और असाइनमेंट डेस्क की लड़की देव को देख देखकर हंस रही है. देव को लगता है कि उसका रूप रंग बदल रहा है. उसके कपड़े गेरूए हुए जा रहे हैं. उसकी दाड़ी अचानक बढ़ गई है. उसने बाल बढ़ गये हैं और मसूरी की किसी बेशर्म आवारा पहाड़ी ने अभी तक आंखें नहीं मूंदीं हैं. उसने एक बरगद के पेड़ को भेजकर उसके लंबे बालों में दूध मल दिया है. असाइनमेंट डेस्क की वो लड़की अभी तक हंस रही है. वो बार बार कनखियों से उसे देख रही है. देव को उसकी इस हरकत से गुस्सा आ रहा है. क्यों उसे नहीं मालूम. पर ये लड़की भी उसे मसूरी की उसी पहाड़ी की तरह लग रही है. जिसे कभी भी शर्म नहीं आई. जिसने कभी आंखें नहीं मूंदी. जो चुपचाप आने वाली खामोशी में अचानक छींक पड़ती थी. बिट्टू अचानक सहम जाती. और वो निर्जन पहाड़ी फिर हंस देती. कभी कोई कोयल बोलती थी तो अच्छी लगती थी. लेकिन शायद ये लड़की बिल्कुल अच्छी नहीं है. देव को घुटन हो रही है. उसे प्यास लग रही है. वो ट्रे से ढंके पानी को देखता है. वो झरना बन जाता है मीठे पानी का झरना. बिल्कुल भट्टा फॉल के पानी की तरह. देव कुछ समझ नहीं पा रहा. उसे पसीना आ जाता है. वो ऑफिस बॉय पर झल्लाता है. एसी ऑन करने को कहता है. अचानक गिलास के पानी से वही परी फिर बाहर आती है. धीरे धीरे पंखा झलती है. अब देव को राहत मिल रही है. सब सामान्य हो जाता है. असाइमेंट डेस्क की लड़की उठकर वहां से चली जाती है. देव को थोड़ी दम आती है. वो पानी का गिलास उठाता है. एक घूंट पीता है. पर पानी एकदम खारा है. जैसे किसी के आंसू पी रहा है. वो घबराकर गिलास रख देता है. परी फिर गायब हो जाती है. उसकी दाड़ी-मूंछें अपने आप हट जाती हैं. गेरुए कपड़े फिर पेंट शर्ट बन जाते हैं. की बोर्ड फिर काम करने लगता है. ऑफिस बॉय जिन वाला चाय का कप ले जाता है. खारे आंसू का गिलास फिर मीठे पानी से भर जाता है. असाइनमेंट की लड़की फिर आकर अपनी जगह बैठ गई है. लेकिन वो जटाधारी जोगी भागकर लंबी सांस के साथ देव के अंदर दाखिल हो जाता है. देव को लगता है जैसे उसे किसी मंदिर का महंत बनाकर यहां भेज दिया गया है और उसके प्राण वहीं पहाड़ों की किसी गुफा में रह गए हैं. वो परी उसकी आंखों में आ गई है. और अलिफ लैला की कहानियों के जान वाले तोते की तरह वो अपनी नज़रों को दुनिया से छिपाए फिर रहा है.

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
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