30/4/07

कहाँ रुके हैं बढे कदम।


बढे कदम, उठे कदम,

पदचिन्हों पर चले कदम।

कही अनकही एक कहानी,

चुपके से कह चले कदम।


चकमक मंजिल देख भ्रमित हो,

आशाओं ने छले कदम

ठोकर लगी जाम से झलके,

उपमानों से भले कदम।


पन्नों पर काजल सी रेखा,

भावों के नभ तले कदम।

सब रुक जाऐं भले जहाँ में,

कहाँ रुके हैं बढे कदम।

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

9410361798

28/4/07

चल यार आज बेबात हँसें!

चल यार आज बेबात हँसें,
कोई बात चले इससे पहले।
आ तुझको आखों में भर लूँ,
घर को उड़ने से पहले।
चल यार दोबारा उसी जगह,
बेठें बिल्कुल अनजानों से,
चल कर लें फिर से वही हाल,
अपने अपने दीवानों से।
फिर तुम कहना कुछ,
कुछ मैं कह दूँ,
सब लोग कहैं इससे पहले।
चल यार आज बेबात हँसें,
कोई बात चले इससे पहले।
चल यार वहीं पर, उन्हीं दिनों ,
जब थी खुश तू भी, खुश मैं भी।
हर बात तेरी थी तब भारी,
हर बात मेरी थी तब वजनी।
मैं तुझको कुछ था, कुछ तू मुझको,
सब कुछ बनने से पहले,
चल यार आज बेबात हँसें,
कोई बात चले इससे पहले।
चल बैठ वहीं देखूगाँ तुझको,
चोरी चोरी चुपके चुपके।
फिर करना वो बातें मेरी,
अपनी उसी सहेली से।
चल फिर से इकरार करें
हम वैसे ही चोरी चोरी।
आ तुझको यादों में भर लूँ,
घर को उड़ने से पहले।
चल यार आज बेबात हँसें,
कोई बात चले इससे पहले।

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

4/4/07

मेरे खेत की तहजीब।

दिल्ली की कभी ना रूकने वाली और मुंबई की कभी ना झुकने वाली जींदगी के बीच एक और सभ्यता-संस्कृति है। वहाँ कहीं भोग के पेडों का निराला स्वाद है तो कहीं पेठे की कई रंगों में मिठास। बडी भागम-भाग तो यहाँ नहीं है पर अब सुकून भी छिन गया है। जी मैं दौरा कर रहा हूँ ब्रज की तहजीब का ।
ब्रज , यानी मथुरा,वृंदावन, आगरा और भरतपुर। ब्रज, यानि कान्हा का आँगन!वो संस्कृति जहाँ घरों से ज्यादा मंदिर हैं आर लोगों से ज्यादा रिश्ते। पुराना भारत अभी सिमटा जरूर है पर आज भी गालिब, नजीर और ताज के माहौल में जिंदा है।यहाँ मुशायरों पर भी खूब भीड जमती है और अब जरीवाला के लटकों का भी लडकपन कायल है। लडकियों को घर से बाहर भेजा जाने लगा है पर अभी नजर रखी जाती है। इतिहास बिखरा पडा है। कान्हा की यशोदा ने जितने नाम उसके नहीं रखे होंगे उससे ज्यादा नामों के अवशेष यहाँ वहाँ खूब हैं। छाछ दूध की अब भी कमी नहीं है पर अब बच्चों को कोक ज्यादा पसंद है। कैरियर की फिक्र से इनके माथे पर भी सलवटें आ जाती हैं, पर धूँए के छल्लों ने ज्यादा देर टेंशन में न रहना इन्हें सिखा दिया है। यमुना को माँ कहते हैं, पूजा करते हैं आचमनी भी ले लेते हैं पर कचरा मलवा और गन्दगी फेकने में भी गुरेज नहीं करते। पेडे की मिठास बरकरार है, पर पेठे की मिठाई थोडी कडवी हो गयी है। आगरा दिल्ली बनने की कोशिश में है।सुनने में आया है कि मेट्रोज़ में शुमार हो गया है।सुबह-सुबह ट्रेफिक की लाल बत्ती को अगूँठा दिखाते ये नौजवान एक मोटर-साइकिल पर कम से कम तीन की विषम संख्या में सुबह आई॰ऐ॰एस की कोचिंग जाते हैं और फिर हर शाम तेरे नाम। पेठ और पेडे़ के शहरों का इतिहास सुर्ख और गुलाबी मोहब्बत ने लिखा है। एक ओर राधा-कृष्ण की पूजा होती है तो दूसरी ओर शाहजहाँ-मुमताज का सफेद पाक मकबरा दूर दूर के सैलानियों से कहता है कि 'मोहब्बत ऐसे करते हैं'। पर अभी खुले आम मोहब्बत पर बंदिशें हैं, प्रेमियों को यहाँ कोई ठौर नसीब नहीं है। झाडियों में छिपते हैं तो बदनसीब पुलिसिया डंडा पाँच के नोट की ख्वाहिश में उन्हैं इश्क नहीं करने देता, और कहीं वैलेन्टाइन पर गुलाब देने का मन बना लिया, तो बजरंग दल और शिवसेना के हर माह मनोनीत होने वाले नेता उन्हें जीने नहीं देते। अभी सुबह-सुबह उठकर माँ-बाप के पैर छूने की परंपरा कहीं कहीं बची है पर उन्हीं को मारकर संगीन उठाने वाले भी चंबल की आबादी बढा रहे हैं।यहाँ टूटे नाले, उखडे खरंजे और खुले सीवर नगरपालिका में अर्जी देने से नहीं, जाम लगाने से दुरूस्त होते हैं। यहाँ के लोगों को ये रास्ते बखूबी पता चल गये हैं इसलिये ट्रांसफार्मर फुंकने की शिकायतें सीधे प्रधानमंत्री के नाम ग्यापन लिख कर की जाती हैं और उसके प्रेस नोटिस हर शाम आखबारी दप्तरों में पहुँचा दिये जाते हैं।यमुना किनारे तक कॉलोनियाँ बन गयीं हैं,और अब फ्लाईओवर भी बनने लगे हैं,पर ताज के सामने पत्थरों का ठेर लगाकर सरकार को बनाने और गिराने का खेल भी यहीं से चला है।लोग अब कुर्ता-धोती छोड चुके हैं, पेंट शर्ट से भी तौबा करने लगे हैं, लूज ट्रेंडी ट्राउजर और वी गले की टी-शर्ट बदन पर दिखने लगी हैं। जिमखाने सुबह-शाम भरे रहते हैं और फूले सीनों के साथ आखों पर चढा मासनस दो का चश्मा बताता है कि हम लोग सेहत का तो खयाल रखते हैं पर पढाई का भी। खैर अब सब मॉर्डनाइज्ड हो रहा है। पुरानी तहजीब धीरे-धीरे दम तोड रही है , पर नयी हवाऔं में सास लेने की आदत ये दाल चुके हैं।आखिर ब्रज विकसित हो रहा है।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
09410381798