26/5/08

पेन की स्याही, सूखी तो समझ आया...


प्यासा छोड़ कर
एक बार फिर
थम गई बारिश
और बेचारा संमदर.. बह गया सब...
रातभर की नींद को,
गिरवी रखा है...
और दिन की चांदनी को पी गया रब...
फिर मिलेगी तंग छुट्टी,
घूम आऊंगा...
दूर... बहुत दूर... वहीं पर रह गया सब...
ज्यों नुकीली बालियां
गेहूं की, सोने की...
टकटकी में ही रहा... और कट गया सब...
मां का, पिताजी का,
बहनों- दोस्तों का
ना पता ये सारा हिस्सा... छंट गया कब...
पेन की स्याही सूखी
तो समझ आया...
स्याह सा एक दौर था... और खप गया सब...
दूर सीसा था...
और बीच में बादल
रोशनी जब ना रही तो... छंट गया सब...
किताब तूने दी मुझे
दर्दों के गीतों की...
तोहफा था पहला इसलिये यूं रट गया सब
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852337

24/5/08

राधा कैसे न जले- 4



५.
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आप कहेंगे कि तीन चार पन्ने कहानी पढ़ गये और लेखक बार बार कह रहा है कि आप अभी कहानी पढ़ेंगे... अभी कहानी शुरु होगी... पर आखिर वो शुरु कहां से होगी... सच बताऊं तो मुझे भी नहीं पता कि ये कहानी कहां से शुरू होगी... कहां खतम होगी... क्योंकि लेखक ने ये कहानी जल्दी लिखना शुरु कर दिया है... और कहानी तो अभी चल ही रही है... ये कुछ देर के लिए आप इसे इंटरटेन्मेंट चैनलों पर आने वाले आज के सोअपेरा की तरह पढ़ें... जो चलते जाते हैं... बेसिर पैर... बिना हिसाब किताब के... बिना कहानी किस्से के... और बिना मतलब के... पर उनमें भी अपना मज़ा होता है... अपना फ्लो होता है... और यही फ्लो तो जिंदा होने का अहसास कराता है... इंदू को घर जाना था... पापा से मिलना था... पहली बार... आखिरी बार... और भरोसा भी नहीं था कि मिल भी पाएगी या नहीं... इंदू ने कभी अपने पापा को नहीं देखा... तस्वीर में भी नहीं... ये रिश्ता उसके लिए सिर्फ लोगों की किस्सागोई था... जो कह दे मान लेगी... पर पापा का एक खत ज़रूर आया था एक बार... और बकौल खत इंदू को पता चला कि उसके पापा उसे अपनी जान से भी ज्यादा चाहते थे... इस तिलिस्मी से रिश्ते और उस खत से उसे सिर्फ इतना पता चल सका कि उसकी भलाई के लिए ही उसे बचपन में ही बोर्डिंग भेज दिया गया था और उसके घरवाले उसके हितैषी हैं... जो भी हो न तो इंदू ने उस खत के ज्यादा मतलब निकाले और न कई कई बार पढ़ा... हां हमेशा के लिए सहेज कर ज़रूर रख लिया... आसाम की हवा खुली थी... वो आजाद थी... न घर की कोई बंदिशें कभी उस पर थीं और न समाज की... लेकिन वो कभी नहीं समझ पाई कि ऐसी आजादी के लिए यहां इतनी हाय-तौबा क्यों हो रही है... बस की कोने वाली सीट मिली थी उसे... और बारिश हो रही थी... वैसे बारिश से भी इस लड़की का पुराना रिश्ता है... कैसे...? अब सब एक साथ जान लोगे क्या...? अभी तो कई पन्ने भरने हैं... और कहानी का कोई इरा सिरा नहीं... खैर... मुआफ करना मुझे ज़रा बात घुमा फिरा कर करने की आदत है... हां तो मैं कह रहा था कि उसे अपनी आजादी अच्छी नहीं लगती थी... बुखार आ जाता था तो उसका मन होता वॉर्डन हाउस में बैठे डॉक्टर की कडुई क्रोसिन और कफ सिरप से आई नींद की जगह किसी अच्छी सी गोद में चुपचाप दुबक जाए... और कोई चूड़ियों भरा हाथ उसके सर पर पट्टियां रख दे... पर आज़ादी में ये मुमकिन नहीं था... आज़ादी उसे घुटती थी... बहुत दिन हो गए थे डांट सुने... उसके सब दोस्त बड़े हो गए थे सो अब न टीचर डांटते थे औऱ न ही वार्डन बात बात पर टोकती थी... पर कभी कभी टीवी के सास बहू के किस्से देखकर उसे लगता ज़रूर था कि सास ज़रूर ऐसी ही होती होगी... वार्डन से पहले डर लगता था... फिर डरना भूल गई... वार्डन से भी... जिंदगी से भी... अब डर की जगह अजीब सा लगता था... आज ज्यादा से ज्यादा उसे घबराहट का नाम दे सकते हैं... डर का नहीं... ऐसी ही घबराहट होती थी जब १५ अगस्त को बोर्डिंग होस्टल पर तिरंगा फहराने की बारी आती थी... तीन दिन पहले से प्लम्पलेट बांट दिये जाते थे... दीवारों पर मार्क्स के नारों के साथ चेतावनियां होती थीं... तिरंगा न फैराने की हिदायतें होती थीं... लाल सलाम की सलामी और गरमी अचानक बढ़ जाती थी... प्रसिपल गुपचुप रात में तिरंगा फहराते और रात में ही उतार लेते... रात में तिरंगा नहीं फहराना चाहिए, उन्हें पता था... पर उस खौफ का क्या जो दिनों दिन बढ़ता जाता था... हॉस्टल की छानबीन शुरू होती... लड़कों के कमरों की तलाशी शुरु होती... पता नहीं वक्त करवट ले रहा था या दौर... कोई यकीन नहीं कर पाता था कि क्लास का सबसे होशियार लड़का... सबसे सीधा शरीफ लड़का बागी हो गया है... किसी को इल्म भी नहीं हो पाता था कि वो अपने तकिये के नीचे खंजर और डैडी की तस्वीर के पीछे ऐके सेंतालीस छिपाए है... अगस्त की शुरुआत हुई नहीं कि आर्मी मूवमेंट बढ़ जाता था और इसका पता भी तभी चलता था जब उसी सीधे सादे होशियार लड़के के मर्तबान में मां के प्यार से सराबोर कच्ची आमी का अचार नहीं, खून के खतरनाक इरादों से सराबोर आरडीएक्स मिलती... ऐसा कई बार हुआ था... तब घबराहट हो जाती... यकीन फिर छलनी हो जाता था... पर कुछ दिनों में फिर सब शांत हो जाता था... सावन जाते जाते पत्तों से खून घुल जाता था... और अगस्त के आखिर तक फिर नदी के किनारों पर बच्चे पिकनिक मनाना शुरू कर देते थे... उन्हीं नदियों के रास्ते बस चली जा रही थी... और इंदू खामोश थी... पता नहीं क्या चल रहा था उसके मन में... आप थोड़ी देर के लिए इंदू बनकर देखिये... सब पता चल जाएगा...

जारी है...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336

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तुम आना कभी मेमना लेकर... पहाड़ों से...


रोज़ बदलता हूं कम्प्यूटर के डेस्टोप से चेहरा अपना
औऱ पीछा छुड़ा लेता हूं तुझ से...
रोज़ लिखता हूं एक खत तुझे याद कर...
रोज़ गांठता हूं दोस्ती नए लोगों से...
और रोज़ भूल जाता हूं तुझे...
इस कदर कि तुम फिर याद नहीं आती...
जब तक मैं अगले दिन फिर न भुला दूं तुम्हें...
यकीन न आये तो देख जाना...
तुम आना कभी मेमना लेकर... पहाड़ों से...
पेड़ की उलझी डाल से झांककर ढूढ़ना मुझे...
और पूछना मेरा हाल...
वैसे मुझे तो तुमने भी भुला दिया होगा ना अब तक...

देवेश वशिष्ठ खबरी
9811852336