17/9/09

कॉन्ट्राडिक्शन- 2


दो आंखें हैं... एक जोड़ी होंठ... दो बाहें... कुल मिलाकर एक पूरा जिस्म है... कुछ और हिस्से हैं उस जिस्म के... कुछ उभरे हुए तो कुछ गहरे... जिस्म गीला है... मैं शायराना हूं... मैं रूहानी हूं... मैं जिस्मानी हूं...

एक जोड़ी बाहें एक और जोड़ी चाहती हैं...
एक जोड़ी आंखें अक्सर एक और जोड़ी तलाश लेती हैं...
एक जोड़ी होठों को शिकायत है एक और जोड़ी न मिलने की...
मुझे लगता है कि मेरे ही जिस्म में सरहदें खिंच गई हैं...

तुम्हारी शिकायतें अक्सर मुझे सुनाई देती हैं... तुम्हारे होंठ एक लम्हे के लिए कुछ भी नहीं बोलना चाहते... मैं अक्सर खामोश नहीं रह पाता... तुम कहती हो मुझे जीना नहीं आता... तब मुझे लगता है जीना जरूरी भी नहीं... तुम्हारी एक जोड़ी बंद आंखें नहीं बोलती और मुझसे अक्सर कह देती हैं कि मैं मैं जाहिल हूं... मैं तुममें डूब मरना चाहता हूं...

जिस्म बेलिबास नहीं है... होना चाहता है... दिल में दरिया है... दरिया में उथलपुथल है... कई लोग हैं... उथलपुथल से बेपरवाह हैं... बालों में भाप है... आंखों में खून है... रगों में लाली है... बस... रगों में सिर्फ लाली है...

मुझे रंग याद आते हैं... मुझे सर्दी का मौसम याद आता है... मुझे लता... रफी और मुकेश के गाने गुनगुनाने का मन करता है... तुम कहती हो मैं जमीन से जुड़ा हूं... मुझे लगता है कि तुम मुझे देसी कह रही हो... मैं फिर भी बोलता रहता हूं... तुम अक्सर खामोश रहती हो...

सब कुछ उल्टा पुल्टा है... जिस्म के चारों ओर शोर हो रहा है... कान परेशान हैं... वो कुछ सुनना नहीं चाहते... जिस्म बार बार सबको मना करना चाहता है... हाथ कानों को गले लगा लेते हैं... कानफोड़ू आवाजें हैं... सीने तक उतरना चाहती हैं... सीने के दरिया में उथलपुथल इसी वजह से है...

एक करवट एक नई सलवट बना देती है... मुझे सलवटें अच्छी नहीं लगतीं... मुझे बस तुम अच्छी लगती हो... सलवटों अक्सर सरहद बन जाती हैं... पड़ौसी सलवट शरारत करती है... पहली सलवट को शरारत पसंद नहीं है...

जिस्म को खामोशी पसंद है... जिस्म खामोश हो जाना चाहता है... जिस्म आवाजों से बेपरवाह है... कल ही किसी से सुना है कि जिस्म को अपनी शर्तों पर जिंदा रहना चाहिये... जिस्म को बाकी जिस्मों से फर्क नहीं पड़ता... जिस्म आजादी चाहता है... जिस्म गुलाम है...

ये सलवटें झगडालू हैं... जिस्म पंचायतें लगाता है... जिस्म चुगली करता है... जिस्म मौसम का मजा लेता है... जिस्म बुरे दौर को भूल जाना चाहता है... जिस्म खुदपरस्त है... जिस्म स्वार्थी है... जिस्म बेचैन जंगल को खूब गालियां देना चाहता है... फिर उसी जंगल में खो जाना चाहता है... जिस्म पहाड़ों पर जाना चाहता है... फिर संन्यासी हो जाना चाहता है...

आंखों को किताबें पसंद हैं... चेहरे को नकाब पसंद हैं... वैसे आंखों को आंसू भी पसंद है... लेकिन ओठ आजकल तौबापसंद हो गए हैं... रुह बेचैन जंगल में बेचैन है... पहाड़ों पर चली गई है... जिस्म खामोश है...

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

1/9/09

मैं तेरा, तेरी दुनिया का



अंगडाई लेते मेरे मैले ख्वाबों को
तूने छू लिया था हौले से...
जैसे पहले चुंबन सा स्पर्श था वो...
और मैं जी लिया था ज़िंदगी मेरी...

वो मोतियों की दुनिया थी...
हकीकत में ख्वाबों की दुनिया...
आंखों से झरती थी...
और गर्म पानी का फव्वारा बुझाता था
उस शहर की प्यास
मैं अजीब सा था उन दिनों...
इन अजीब सी बातों की तरह...

बादल के पीछे दौड़ता था मैं...
जमीन से उठाता था किरच
और उसकी चमक देखकर हो जाता था खुश...
उतना जितना आज नहीं होता सच के हीरे पाकर...
अजीब सा था उन दिनों...
मैं भूल जाता था भगवान का अस्तित्व
और मैं बन जाता था रक़ीब
तेरा... तेरी दुनिया का

मैं कुछ नहीं था... पर तेरे साथ था...
बहुत दिन बाद आज लौट आया है वो दिन
मेरे बदन में छिपकर बैठ गई है तेरी रुह...
और मैं फिर बन गया हूं तेरा दुश्मन
आहिस्ता आहिस्ता...


देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’
1-9-09