18/7/25

सुनो पिता, क्या याद तुम्हें है घर वो गलियों वाला

सुनो पिता, क्या याद तुम्हें है घर वो गलियों वाला
जहाँ रह गया लगा हमारी खुशियों वाला ताला?

वो घर जहाँ आख़िरी अवसर मिला, हमें हँसने का
घर क्या छूटा, छूट गया संयोग साथ बसने का।

जहाँ गली में आते ही चेतक चुप हो जाता था
जहाँ आपके आने भर से बड़ा मज़ा आता था

वो घर जहाँ भेली भर मीठा बाबा ले आते थे
उनके थैले से कितने वरदान निकल आते थे

वो घर जहाँ कमरे नीचे थे और आप ऊँचे थे
वो घर जहाँ पर लगे फूल हम सबने सींचे थे

दीपयज्ञ के दीपक, गलियों में गायत्री ले जाते थे
लाई, चनौरी खाकर हम सब कितना इठलाते थे?

वो घर जहाँ सफ़ेदी करना, उत्सव-सा होता था
वो घर जहाँ कभी कोई बेसबब नहीं रोता था

गलियों वाले घर तक सबका रस्ता मुड़ा हुआ था
पहला श्रम था, सपना था, वो घर जुड़ा हुआ था

वहीं रह गई शायद बाबा के जापों की माला
जहाँ रह गया लगा हमारी खुशियों वाला ताला?

सुनो पिता, क्या याद तुम्हें है घर वो गलियों वाला!

© - देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

7/7/25

क़ातिल का फ़रमान चला है

क़ातिल का फ़रमान चला है,
दहशत का अरमान चला है।

मंदिर से जो हिला नहीं था,
वो लँगड़ा भगवान चला है।

चार चवन्नी हाथ में दे दीं,
जीवन भर ‘एहसान’ चला है।

कौआ लेकर उड़ता जाता,

पीछे-पीछे ‘कान’ चला है।

हरकारे की हाँक शून्य कर,
देखो — तीर-कमान चला है।

देख गुलामी छोड़ के तेरी,
आगे अब सम्मान चला है।

देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

19/6/25

अर्ज़ है!


अर्ज़ है!
ये अर्ज़ है!
कंधों पर बोझिल कर्ज़ है!
अर्ज़ है!

बहते पानी की प्यास है!
जो छूटा, वो खास है।
फिर भी टूटी सी आस है?
क्या मर्ज़ है?
अर्ज़ है!

धक-धक धड़कन में हो रही
किस्मत मुंह फेरे सो रही
रिश्ते नातों का सब भरम
मित्रों-यारों का हर धरम
खुदगर्ज़ है
अर्ज़ है!

उसकी मिट्टी का ये महल
ये धूप-छाओं, ये चहल पहल
बनी रहेगी या नहीं?
मुझको शक है कि वो यहीं
दर्ज है!
अर्ज़ है!

©- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

ये मकड़ी से जाले !

मैं मुक्त हुआ...
ये मकड़ी से जाले,
झंझावत यूं घिरे हुए हैं
कितनी लतिका डाले
- ये मकड़ी से जाले !

ये क्षितिज,
आकाश के उस पार...
धरती के ऊपर,
सागर के दूर किनारे...
- ये मकड़ी से जाले !

चलती लहरें, छूने उसको
पर टकरातीं
तटवर्ती होकर
लेकर रुकीं सहारे...
- ये मकड़ी से जाले !

मैं न रुकूंगा...
दूर लक्ष्य है, गन्तव्य स्वच्छ है
धूल में लिपटा चलता जाऊं,
निशा के बादल काले...
- ये मकड़ी से जाले !

एकाकी ! लेकिन निडर,
पहुँचूँगा वहां, जहां हो स्वतंत्रता
बस मैं और मेरा विश्वास
ईश्वर के बोल, उच्छवास
ये स्वप्न ही हैं शायद
मन के भंवरों में, मेरी नौका डाले
- ये मकड़ी से जाले !

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

13/6/25

फिर से जाना होगा घर... इसी बात से लगता डर !


फिर से जाना होगा घर
इसी बात से लगता डर

किसी और ने चाल चली
हमें बता दिया 'मुख़बर'

खूब पता है इश्क नहीं
फिर भी करते आडंबर

कैसे कर लेते हो सब ?
100 में पूरे 100 नंबर

हर लम्हे में दिल मारा
कब थे हम इतने बर्बर ?

सौ शैतानों में 'इब्लीस'
बता रहे हैं 'पैगंबर'

अपना मन ही काला होगा
बाकी सब हैं 'श्वेतांबर'

ख़बरी बड़ा अकेला है
लेते रहना खोज ख़बर !

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'


आईने में जब भी देखा...


आईने में जब भी देखा
तू भी दिखा, डर भी दिखा,
मेरे जैसा ही कोई चेहरा
बार-बार मर भी दिखा ।

साथ-साथ तो चले हमेशा
राह अलग थी, सोचें भी
पूरा रस्ता ख़ामोशी थी
हर मोड़ पर असर दिखा।

बातें कम, हिसाब ज़्यादा
लम्हे सभी उधारी के,
एक घरौंदा, पर उस घर में
किराए जैसा दर दिखा।

दिन बँटते थे अखबारों में
रातें थक के सो जातीं,
सपनों में बस भीड़ रही
और नींदों में सफ़र दिखा।

मुस्कानों में मोल लगा था
जज़्बातों का वज़न हुआ,
हम जीते थे शर्तों पर
आवाज़ों में ज़हर दिखा।

वो रिश्ता जो प्यार कहाया
बोझ लगा है हर पल में,
तू भी था, मैं भी लौटा
मगर नहीं कोई 'घर' दिखा।

'खबरी' ने जब कलम उठाई
शब्द जले, पर बात न की
काग़ज़ पर बस राख बची थी
उसमें एक भंवर दिखा।

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'


रमता जोगी, बहता पानी... तेरी राम कहानी क्या ?


रमता जोगी, बहता पानी
तेरी राम कहानी क्या ?
आहट-आहट, चौखट-चौखट
बैरन नई पुरानी क्या...?

उन बातों की बातें मुझको
बिल्कुल वैसे ताजी हैं
जैसे साखी, सबद, सवैये
कोई प्रेम कहानी क्या !

बारिश, जंगल, हवा, पहाड़ी
नदियां अभी रवानी हैं !
लेकिन सारी बातों मुझको
तुझको सुनी सुनानी क्या ?

आते-जाते, रुकते-चलते,
कुछ तो दिल में चुभता है,
जब जब कह देता है कोई
गा दूं तुझको हानी क्या ?

पागल, पागल होकर देखा
तेरे एक बहाने से
और तभी से दुनिया भर की
मुश्किल मुझको मानी क्या...?

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

30/10/22

तबाही मेरी


डूब गई रौशनाई मेरी
तुम्हें देखनी है तबाही मेरी ?

घर नहीं लौटना तो इतना बता दो
कहां रखी है दवाई मेरी ?

कैसे यकीन दिलाऊं, एक दौर था
होती थी वाहवाही मेरी

तुम्हारे संग कुछ लिख नहीं पाया
और सूख गई सियाही मेरी

अब तुम कहो वो ही सच है
कौन मानेगा गवाही मेरी ?

अब लौट भी आओ, क्या फर्क पड़े
अकेली ही होगी विदाई मेरी

मेरी तितली के पंखों में धंस गए कांटे
यही फसल थी उगाई मेरी ???

@ देवेश वशिष्ठ खबरी (अक्टूबर 2022, ग्रे.नो.)

25/1/22

डर

डर डर कर और मर मर कर लगे रहो बन घनचक्कर अकर बकर तुम करो फिकर तुम सिर पटको ये संगमरमर कंकर को शंकर समझोगे कूकर को भयंकर समझोगे बेमौत मरोगे तय ही है उल्लू को ईश्वर समझोगे तीर्थंकर उसको बना दिया जिसकी कोई औकात नहीं उसके हंटर से दुम कांपी जिसकी कोई साख नहीं वो अजर अमर तुम झुकी कमर मर जाओ ! या फिर लो टक्कर - देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

सपनों को खा जाने वालों

सपनों को खा जाने वालो
मेहनत को कब्जाने वालो 
हमने अपने हर सपने में 
अपनी जान छुपा रक्खी है
 
तुम आंसू पर रोटी सेको 
हमने आग जला रक्खी है

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

प्रेम के प्रमेय

प्रेम में भी 
सीधी रेखाओं के 
काटने से ही बनता है कोण !
प्रेम की समानांतर रेखाएं भी 
अनंत तक करती हैं मिलने का इंतज़ार ! 
प्रेम की ज्यामिती के त्रिकोण में भी 
हमेशा दो भुजाओं का योग 
तीसरी से बड़ा होता है !
प्रेम की छटपटाती धुरी भी
घेरा ही बनाती है !
फिर भी जाने क्यों 
कभी सिद्ध नहीं हुए 
प्रेम के प्रमेय..?

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

अब क्या मर जाएं ?


और तेरे कितने गीत गाए
अब क्या मर जाएं ?
बच्चों को भूख भी लगती है
ये जाकर किसे बताएं ?
तेरी सलामी में दोहरे हो तो गए
तेरे खेल के मोहरे हो तो गए
तुम्हारी सब कैंची हमीं पर चलीं हैं
और हमीं जयकार लगाएं 
और तेरे कितने गीत गाए
अब क्या मर जाएं ?

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

हवा हवाई


अकड़  के  नहीं  चल रहे हैं
बस हम ठंड से लड़ रहे हैं

कोई अमीरी वमीरी नहीं आई
ये बाल फिकरों में झड़ रहे हैं

कंधे में दर्द था सो झटकी गर्दन
वो खामखां हम पर बिगड़ रहे हैं

न हूर की परियां,  न ज़मीन बाकी हैं
किस बात की खातिर जंग लड़ रहे हैं

दर्द का दरिया न कोई बड़ी कमाई है
सब हवा हवाई हैं जो गीत पढ़ रहे हैं 

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

दरिंदा

ये क्या कम लड़ाई है कि ज़िंदा हूं
ऐ मौत मुझे माफ कर.. शर्मिंदा हूं !

उसे इश्क था मुझसे, बड़े हिसाब का
मुझे कुर्बान होना था, उसका चुनिंदा हूं !

ख़ामोशी से ज़िबह होता, ठीक था 
लेकिन मैं चीख़ उठा, ऐसा दरिंदा हूं 

मेरी गर्दन पर छुरी बस चलने वाली थी 
फिर याद आया मैं पर वाला परिंदा हूं

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

तुम्हारी उदासी







तुम्हारी उदासी बासी लगती है
करवट वाली काशी लगती है
ऐसा लगता है कि मुझे फूंककर
तुम्हें मिली शाबाशी लगती है
तुम्हारी उदासी बासी लगती है

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

डर







जब जब मैं डर जाता हूँ
बड़ा हिम्मतवाला कुछ कर जाता हूं
जब-जब मौत मुकर्रर होती है
मैं जिंदा रहता हूँ न कि मर जाता हूं

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

ज़रूरी है...

शायद अब पीना ज़रूरी है
फटी जेब को सीना ज़रूरी है

सिर्फ दाद मिलना काफी नहीं
शायर का जीना ज़रूरी है

बिना मेहनत कैसे अमीर हुआ वो?
मेरे हर कौर में पसीना ज़रूरी है

घर से दफ़्तर में कट रही उम्र सारी
मंदिर ज़रूरी न मदीना ज़रूरी है

बहुत रोज़ हुए हाथ मिलाए हुए
दोस्त का अब सीना जरूरी है

 - देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

अब सर्दी कब आती है


गैया का कंबल, वो तुलसी का कपड़ा
वो तिल वाली टिक्की, वो गन्ने की राव 
वो टोपे, वो स्वेटर, वो बाबा की गोदी
वो उपले, सरकंडे, शकरकंदी के अलाव
बनिया की दुकानें, मूंफली वाली तानें
वो रुपया, अठन्नी, चवन्नी के हिसाब
अब बस ठिठुरन लाती है
अब सर्दी कब आती है ?

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

ख़ून

चल तूने ये सुकून दे दिया 
मुझे भी जंगी जुनून दे दिया

जो नासूर बन गए कुरेदकर
सहलाने को नाखून दे दिया

मैं कभी थाने तक गया नहीं
तूने मेरे हाथ कानून दे दिया

तूने तो आज़ादी भी नहीं दी
और मैंने अपना खून दे दिया

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

इश्क के दूजे दर्जे में


हम इश्क के दूजे दर्जे में
बस जैसे-तैसे पास हुए 
धीरे-धीरे लिखते-रटते
पूरे सब अभ्यास हुए !

पर वो जो आला नंबर थे
जो इंसा नहीं कलंदर थे
जब पूछा उनसे कैसे हैं ?
वो सब भी हम जैसे हैं ।

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

24/1/22

घाव


तुमने कुरेदा भी वहीं जहां घाव था 
मैं मंजिल नहीं बस एक पड़ाव था

जिसे ज़िंदगी समझा सब लुटा दिया
मैं उसके लिए सिर्फ एक दांव था !

फिर भी डूब गया वो किनारे न लगा 
जिसके लिए मैं कागज था, नाव था !

उसे बचाने में मुझे फिर डूबना पड़ा
पुराना इश्क था, बिल्कुल शराब था

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

होठों के प्रेम-प्रपंचों से


होठों के प्रेम-प्रपंचों पर
कितने कागज़ बर्बाद किए 
कितनी रातें नीदें जागीं
कितने आंसू आबाद किए ?

तब काश कलम को कह देता
बस आंसू लिखना अच्छा है
बाकी दुनिया में झूठ भरा
आंख का पानी सच्चा है

-देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

#ख़बरी #नई_वाली_हिंदी

बहाने


ये दुनिया रंगीन बहुत है
पर रंगीनियां महंगी बहुत हैं

मेरी नौकरी है मतलब भर की
और घर की ज़रुरत बहुत है

ये पहाड़ ये नदियां,समंदर-वमंदर
जाना तो है पर सर्दी बहुत है

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

#ख़बरी   #नई_वाली_हिंदी

3/12/21

प्रेम से उचटे हुए मन

कहीं भी जाएं

कितना भी कमाएं

नदी, पहाड़ी, तीर्थ, संगम

कहीं भी घूम आएं

प्रेम से उचटे हुए मन

सो नहीं सकते

वो हंस नहीं सकते

कभी वो रो नहीं सकते।


प्रेम से उचटे हुए मन

सबसे शापित हैं

उनके माथे पर सभी की

हाय अंकित हैं 

प्रेम से उचटे हुए मन 

नर्क जीते हैं

रोज कड़वा घूंट भरकर

ज़हर पीते हैं


प्रेम से उचटे हुए मन

खुद को खाते हैं

अंतर्मुखी होकर

स्वयं से हार जाते हैं

प्रेम से उचटे हुए मन

टूट जाते हैं

उनके सभी सपने

शिकारी लूट जाते हैं


प्रेम से उचटे हुए मन

मौत से बदतर

प्रेम से उचटे हुए मन

तोड़ते हैं घर

प्रेम से उचटे हुए मन

में निराशा है

सबसे मुश्किल लिखना होता 

इसकी भाषा है


प्रेम से उचटे हुए मन

व्यर्थ जीते हैं

उनके हिस्से के कलश

सचमुच ही रीते हैं

प्रेम से उचटे हुए मन

बहुत व्याकुल हैं

दिख रहे जिंदा, लेकिन

लाश बिल्कुल हैं

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

रात 1.08 बजे 

3 दिसंबर, 2021 (नोएडा)

2/11/21

तुम कैसे हो ? हम बढ़िया हैं !

 





तुम कैसे हो ? हम बढ़िया हैं 

एक गैया है.. दो पड़िया हैं

हम बढ़िया हैं 


फ्लैटों में पलते पोमेरियन

इस आंगन में चिड़िया हैं 

हम बढ़िया हैं 


वहां हाथ-हाथ में इन्फेक्शन ?

सब जुड़ी हुई यहां कड़िया हैं 

हम बढ़िया हैं 


वहां प्रोटीन कैल्शियम की गोली

यहां माटी है और खड़िया हैं 

हम बढ़िया हैं 


वहां दीवाली हैप्पी है 

यहां दीपक हैं, फुलझड़िया हैं

हम बढ़िया हैं 

- देवेश 'खबरी'

...नहीं !










दसियों साल से साथ हैं लेकिन

दस लम्हे भी अपने नहीं !

लंबी चौड़ी रात हैं लेकिन

दो सपने भी अपने नहीं !

 

उनसे पूछो जिनने हमको 

जीवन भर का साथ दिया !

चलना है तो चले जा रहे

कदमताल में 'अपने' नहीं !


तुझमें मुझको, मुझमें तुझको

दो दुश्मन से दिखते हैं

एक मांद है, एक म्यान है

इंसा हैं, तलवारें नहीं !


तेरी भी तो क्या मजबूरी

हिस्सा हिस्सा खत्म हुई,

जीने-मरने और रोने में

कितनी सारी रातें.. नहीं ?


6 बाई 6 के एक बिस्तर पर

कितनी हैं दीवारें..? नहीं? 

एक-दूजे को मार चुके है

अब औरों को मारें.. नहीं?


एक पटरी की खातिर दोनों

पहिये आगे बढ़ते हैं

उस नाज़ुक पटरी के ऊपर 

कितने बोझ हमारे.. नहीं?


तू भी चाहे अच्छा-अच्छा

मैं भी अच्छा बनना चाहूँ

अच्छा-अच्छा करते करते

काम बिगाड़े सारे.. नहीं?


दफ्तर से घर.. घर से दफ्तर

दिन कट जाने सारे नहीं ?

तेरे-मेरे बटुए में हैं

कितने सारे ताने.. नहीं?


आज धूप है, कल खप लेंगे

सर्दी आनेवाली है

सब कपड़ों को धूप दिख दो

काम पड़े हैं सारे .. नहीं!


- देवेश खबरी 


23/10/20

ए भाई! जरा समझाई… ये मौत कैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

जब कुछ असर न करे

गुजर-बसर न करे

सब अनमना सा हो

कोई फिकर न करे

जैसा है... बिल्कुल ऐसी ही होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

कमाई का मन न हो

खरच को धन न हो

दुश्मनी भी करें किससे

कुचलने को फन न हो

जो कटे जा रहा है... उस वक्त जैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

टूटने का गम न हो

जोड़ने को हम न हो

खो गया सो खो गया

ढूंढ़ने का दम न हो

जो छूट गया पहाड़ पर.. पत्थर जैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

रात-रात भर घिसता कालिख

सुबह-सुबह मर जाता हैं

कैसे-कैसे भाव उमड़ते

शब्द कहां जुड़ पाता हैं

लिखी सकी ना कभी जो कविता... बिल्कुल वैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

जैसी भी हो.. बनी रहे घर

फुर्सत कब है मरने की

कोई रस्ता.. या.. ना हो

चला-चली बस चलने की

पांव तले जो लगा था टूटा... चक्के जैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

रात 11.53 बजे (22 अक्टूबर 2020, ग्रे.नोएडा)



14/7/17

अबे ओ दल्ले ! सुनो...















अबे ओ दल्ले
सांप की केंचुली में छिपे जोंक
तुम सबसे घिनौने तब नहीं होते 
जब बनते हो प्रहरी
और हाथ में डेढ़ फुट का डंडा
या वर्दी पर टंके सितारों के रुआब में 
तुम उसे भगाते हो थाने से
जो भेड़ियों से भागकर 
घूंघट भर हिम्मत जुटाकर 
मन में प्रलंयकारी प्रण करके पहुंचती है
और तुम्हारीं 
लपलपाती फटी जीभ तक पहुंचे 
भोग का प्रकोप 
उसकी बची खुची 
अस्मत-किस्मत-हिम्मत को भी 
चीर देती है

अबे ओ दल्ले
खादी के पीछे के रंगे सियार 
तुम सबसे अश्लील तब नहीं होते
जब दलालों के पूरे कुनबे के साथ बैठकर
मनाते हो जश्न हादसों का
चिताओं का ताप, लाशों की सढांध 
तुम्हारे मुंह में पानी लाती है
और तुम तुम्हारी तोंद से ज्यादा लील जाते हो

अबे ओ दल्ले
छाती पर बैठ मूंग दलते सरकारी दामाद
तुम तब सबसे हरामखोर नहीं होते
जब जिंदा गरीब की खाल खींचते हो
उसके जी को खौलाकर तिल तिल मारते हो
लेकिन उसके माथे पर लिखे कर्ज का 
सूद भर भी उसे नहीं देते
पर उसी के हाड़-मांस-पसीने पर 
ठहाके लगाते हो
लाढ़ लड़ाते हो
बच्चे पढ़ाते हो
और उसकी किस्मत की फाइलों पर 
कतारों के दलदल के दस्तखत करने में 
तुम्हारे हाथ नहीं कांपते

अबे ओ दल्ले
तुम सबसे कमीने, सबसे कुटिल, सबसे चालबाज तब होते हो
जब हाथ में थाम लेते हो माइक
और मार देते हो लाख सपनों की पैमाइश
तुम सबसे हरामखोर, सबसे अश्लील तब होते हो
जब और दल्लों की तुम्हारी ओर उछाली चाप को
तुम हजारों घुंटी हुई सांसों का दम घोंटकर उछलकर लपकते हो
तुम सबसे अमानवीय तब होते हो
जब तुम सवाल बेचते हो
क्योंकि दल्लों के दलदल में फंसी छटपटाती जान के पास
सिर्फ सवाल होते हैं !

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
14 जुलाई 2017 (नोएडा)

10/3/17

रुंधे गले से...

मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जैसे सबकी आवाज उठाओ,
और खो बैठो अपनी आवाज
ऊं... ऊं... घुर्र घुर्र.... बस
जाहिलों की तरह...
मन ही मन...
इंतजार करूं...
कोई शिकार करे... मैं जूठन खाऊं...


मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जब मन में विरोध हिलोरे मारे...
और बैठ जाऊं मन मार कर...
... श्श्श्श्श्शचुपचाप...
झूठी बातों के बीच
भूल बैठूं अपना सच
और कर लूं यकीन,
मान लूं ललाट लिखा...


मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जब पचा लूं हर जिल्लत को...
पूरी बेशर्मी से...
मार दूं अपने हर विचार को
नाजायज औलाद की तरह...
और भारी लबादों में उनके लिए ढूंढ़ता फिरूं
उनके बाप का नाम...
मार कर खुद को...


मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जब हर साबित करने पर तुलता हूं...
ये मेरा झूठा नकाब नहीं
यही सच्चाई है... कसम से...
गंगा कसम... मां कसम...
मेरी कसम... उसकी...
हां उसकी भी...
रुंधे गले से...


देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705
03-03-2010

14/6/13

तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो..।

सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

रोज की मेहनत, लिखा-पढ़ी
सब इसीलिए तो है...
तुझ तक पहुंचे मेरा खत
बस इसीलिए तो है...
प्यार से खत को खोलो, और फिर और प्यार से चूमो...
हरी हरी सी घास पर जैसे नंगे पैरों घूमो...
आजादी की खुली हवा में झिलमिल झिलमिल हो... धूप छांव का खेल चले और पीपल छाया हो...   
फिर होगा वहीं बसेरा... 
कुछ ना तेरा ना मेरा...
अपना सब संसार जो इतने भर से हो...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

प्रेम व्रेम की परी कहानी, सुनी सुनाई बातें... 
एक था राजा एक थी रानी, नानी चरखा कातें...
एक कहानी चलो हमारी भी कुछ ऐसी हो...
जिसे सुने तो रोता बच्चा सो जाए खुश हो...
परी कथा में ऐसा कोई ताना बाना हो...
ऐसा ही कोई मीठा मीठा गीत सुनाना हो...
अपना भी एक छोटा सा घर हो...
और वहां न कोई भी डर हो...
अपना सब जी-जान जो इतने भर से हो...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...


देवेश वशिष्ठ खबरी’ 13-06-13, रात 3.03