17/12/07

अप्पन समाचार

बिहार के बहुत से गांवों में आज तक बिजली नहीं पहुंची है... लेकिन लोग समाचारों से रुबरु रहते हैं... गांवों में केबल कनेक्शन नहीं है पर गांव का अपना चैनल जरूर है... ये बातें सुनने में भले आपको अटपटी सी लगें पर बिहार के एक गांव में चार लड़कियां मिलकर गांव का चैनल चलाती हैं औऱ उस चैनल का नाम है अप्पन समाचार... देश में खबरिया चैनल बढ़ते जा रहे हैं... एक औऱ चैनल लांच हुआ है... बिहार के एक गांव में एक ऐसे गांव में जहां न बिजली हैं औऱ न ही लोग टीवी चैनलों के ज्यादा मायने समझते हैं... गांव वाले अगर कभी कभार टीवी देख भी लेते हैं... तो शिकायत रहती है कि नेशनल चैनल उनके गांव की सुध नहीं लेते... पर इसी गांव की चार लड़कियां मिली औऱ शुरु कर दिया एक चैनल... गांव का अपना चैनल... बिहार के एक छोटे से गांव का अप्पन समाचार एक मिशन लेकर उतरा है... औऱ मिशन है अशिक्षा औऱ बुरी प्रथाएं दूर करना औऱ इस चैनल की स्टोरी भी इसी तरह के सब्जेक्ट पर रहती हैं... गांव के ही एक छोटे से घर के एक छोटे से कमरे से चलता है अप्पन समाचार... यानी अपना समाचार... रोज सवेरे चैनल को चलाने वाली चार लड़कियां अप्पन समाचार के लिये खबरें ढूंढने निकलती हैं... कभी साइकिल पर तो कभी पैदल... छोटे से गांव की इन लड़कियों के हाथ में ट्राईपोर्ट औऱ हैण्डीकैम अब गांव वालों को अजीब नहीं लगते... छोटे से गांव की अपनी खबरें दिखाता है अप्पन चैनल... इनकी साइकिल की बास्केट के आगे लिखा है प्रेस औऱ उसी में रहता है अप्पन समाचार का माइक... इसी पहचान के साथ इन लड़कियों ने कम्युनिटी रेडियो की तर्ज पर गांव का अपना चैनल शुरु किया है...खबरें जुटा लेने के बाद शुरु होता है उनका पोस्ट प्रोडक्शन... ये लड़कियां एक जगह बैठकर खबरों की कॉपी लिखती हैं... उन्हें अंतिम रुप देती हैं औऱ बुलेटिन तैयार करती हैं... और उसके बाद शुरु होती है एंकरिंग... जिसके लिये इन लड़कियों में काफी क्रेज रहता है... हालांकि गांव में बिजली नहीं है... पर ये लड़कियां प्रोजेक्टर के सहारे अपनी खबरों को बाजार और चौपाल पर लोगों को दिखाती हैं...

16/12/07

न्यूजरूम...

न्यूजरूम
मजमा लगता है हर रोज़,
सवेरे से,
खबरों की मज़ार पर
और टूट पड़ते हैं गिद्दों के माफिक
हम...हर लाश पर
और कभी...
ठंडी सुबह...
उदास चेहरे,
कुहरे में कांपते होंठ-हाथ-पांव,
और दो मिनट की फुर्सत...
काटने दौड़ती है आजकल
अब शरीर गवाही नहीं देता सुस्ती की...
न दिन में और न रात में...
जरूरी नहीं रहे दोस्त...
दुश्मन...
अपने...
बहुत अपने
ज्यादा खास हो गयी है
फूटी आंख न सुहाने वाली
टेलीफोन की वो घंटी...
जो नींद लगने से पहले उठाती है...
और खुद को दो चार गालियां देकर...
फिर चल पड़ता हूं...
चीड़ फाड़ करने...
न्यूजरुम में...