सुनो पिता, क्या याद तुम्हें है घर वो गलियों वाला
जहाँ रह गया लगा हमारी खुशियों वाला ताला?
वो घर जहाँ आख़िरी अवसर मिला, हमें हँसने का
घर क्या छूटा, छूट गया संयोग साथ बसने का।
जहाँ गली में आते ही चेतक चुप हो जाता था
जहाँ आपके आने भर से बड़ा मज़ा आता था
वो घर जहाँ भेली भर मीठा बाबा ले आते थे
उनके थैले से कितने वरदान निकल आते थे
वो घर जहाँ कमरे नीचे थे और आप ऊँचे थे
वो घर जहाँ पर लगे फूल हम सबने सींचे थे
दीपयज्ञ के दीपक, गलियों में गायत्री ले जाते थे
लाई, चनौरी खाकर हम सब कितना इठलाते थे?
वो घर जहाँ सफ़ेदी करना, उत्सव-सा होता था
वो घर जहाँ कभी कोई बेसबब नहीं रोता था
गलियों वाले घर तक सबका रस्ता मुड़ा हुआ था
पहला श्रम था, सपना था, वो घर जुड़ा हुआ था
वहीं रह गई शायद बाबा के जापों की माला
जहाँ रह गया लगा हमारी खुशियों वाला ताला?
सुनो पिता, क्या याद तुम्हें है घर वो गलियों वाला!
© - देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
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