ये मकड़ी से जाले,
झंझावत यूं घिरे हुए हैं
कितनी लतिका डाले
- ये मकड़ी से जाले !
ये क्षितिज,
आकाश के उस पार...
धरती के ऊपर,
सागर के दूर किनारे...
- ये मकड़ी से जाले !
चलती लहरें, छूने उसको
पर टकरातीं
तटवर्ती होकर
लेकर रुकीं सहारे...
- ये मकड़ी से जाले !
मैं न रुकूंगा...
दूर लक्ष्य है, गन्तव्य स्वच्छ है
धूल में लिपटा चलता जाऊं,
निशा के बादल काले...
- ये मकड़ी से जाले !
एकाकी ! लेकिन निडर,
पहुँचूँगा वहां, जहां हो स्वतंत्रता
बस मैं और मेरा विश्वास
ईश्वर के बोल, उच्छवास
ये स्वप्न ही हैं शायद
मन के भंवरों में, मेरी नौका डाले
- ये मकड़ी से जाले !
- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
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