13/6/25

आईने में जब भी देखा...


आईने में जब भी देखा
तू भी दिखा, डर भी दिखा,
मेरे जैसा ही कोई चेहरा
बार-बार मर भी दिखा ।

साथ-साथ तो चले हमेशा
राह अलग थी, सोचें भी
पूरा रस्ता ख़ामोशी थी
हर मोड़ पर असर दिखा।

बातें कम, हिसाब ज़्यादा
लम्हे सभी उधारी के,
एक घरौंदा, पर उस घर में
किराए जैसा दर दिखा।

दिन बँटते थे अखबारों में
रातें थक के सो जातीं,
सपनों में बस भीड़ रही
और नींदों में सफ़र दिखा।

मुस्कानों में मोल लगा था
जज़्बातों का वज़न हुआ,
हम जीते थे शर्तों पर
आवाज़ों में ज़हर दिखा।

वो रिश्ता जो प्यार कहाया
बोझ लगा है हर पल में,
तू भी था, मैं भी लौटा
मगर नहीं कोई 'घर' दिखा।

'खबरी' ने जब कलम उठाई
शब्द जले, पर बात न की
काग़ज़ पर बस राख बची थी
उसमें एक भंवर दिखा।

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'


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