22/7/25

अभी उम्मीद नजर आती है।

मेरे कस्बे के घर से
दिल्ली तक—
एकदम तड़के,
एक रेलगाड़ी चलती है।

सुबह-सवेरे
टिकट खिड़की पर,
छोटी-छोटी सड़कों पर
आपा-धापी चलती है।

कुछ साधू,
कुछ नमाज़ी,
कुछ सरदार,
और कभी-कभी एक-दो 'सर' और 'सिस्टर'
आपस में बतियाते हैं।

सड़क, बिजली, पानी,
नई-नई सरकार
और घूस के व्यवहार पर
चिंता जताते हैं।

कुछ चश्मिश चेहरे—
नई उम्र के—
रोज भागते हैं दिल्ली,
कुछ पढ़ने,
दुनिया से लड़ने,
कुछ कमाने, रूठने-मनाने।

एक बाप की बड़ी बेटी एम्स में भर्ती है,
दूसरे को छोटी के ब्याह की जल्दी है।

कुछ थैले लटकाकर दिल्ली आ रहे हैं,
तो कुछ मुँह लटकाकर।
कुछ बूढ़े,
कुछ बच्चे,
कुछ अधमरे जवान,
और कभी-कभी मैं भी
'दिल्ली' हो आता हूँ।
धक्का देकर
गाड़ी में चढ़ जाता हूँ।

लोहे की सीधी पटरियों पर
सरकते-सरकते
जब थक जाता हूँ—
तो कुछ पेड़ दिखाई देते हैं।
तब थकान काफ़ूर हो जाती है।
चिंता मिट जाती है।
सीट को लड़ते-लड़ते—
जीने की उम्मीद नज़र आती है।



देवेश वशिष्ठ'खबरी'

फिर से जाना होगा घर..!


फिर से जाना होगा घर
इसी बात से लगता डर

किसी और ने की थी चाल
हमें बता दिया 'मुख़बर'

खूब पता है इश्क नहीं
फिर भी करते आडंबर

कह दो कैसे करते सब?
100 में पूरे 100 नंबर

हर लम्हे में दिल मारा
कब थे हम इतने बर्बर ?

सौ शैतानों में 'इब्लीस'
बता रहे हैं 'पैगंबर'

अपना मन ही काला होगा
बाकी सब हैं 'श्वेतांबर'

ख़बरी बड़ा अकेला है
लेते रहना खोज ख़बर !

©- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

18/7/25

घर वो गलियों वाला

सुनो पिता, क्या याद तुम्हें है घर वो गलियों वाला
जहाँ रह गया लगा हमारी खुशियों वाला ताला?

वो घर जहाँ आख़िरी अवसर मिला, हमें हँसने का
घर क्या छूटा, छूट गया संयोग साथ बसने का।

जहाँ गली में आते ही चेतक चुप हो जाता था
जहाँ आपके आने भर से बड़ा मज़ा आता था

वो घर जहाँ भेली भर मीठा बाबा ले आते थे
उनके थैले से कितने वरदान निकल आते थे

वो घर जहाँ कमरे नीचे थे और आप ऊँचे थे
वो घर जहाँ पर लगे फूल हम सबने सींचे थे

दीपयज्ञ के दीपक, गलियों में गायत्री ले जाते थे
लाई, चनौरी खाकर हम सब कितना इठलाते थे?

वो घर जहाँ सफ़ेदी करना, उत्सव-सा होता था
वो घर जहाँ कभी कोई बेसबब नहीं रोता था

गलियों वाले घर तक सबका रस्ता मुड़ा हुआ था
पहला श्रम था, सपना था, वो घर जुड़ा हुआ था

वहीं रह गई शायद बाबा के जापों की माला
जहाँ रह गया लगा हमारी खुशियों वाला ताला?

सुनो पिता, क्या याद तुम्हें है घर वो गलियों वाला!

© - देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

7/7/25

क़ातिल का फ़रमान चला है

क़ातिल का फ़रमान चला है,
दहशत का अरमान चला है।

मंदिर से जो हिला नहीं था,
वो लँगड़ा भगवान चला है।

चार चवन्नी हाथ में दे दीं,
जीवन भर ‘एहसान’ चला है।

कौआ लेकर उड़ता जाता,

पीछे-पीछे ‘कान’ चला है।

हरकारे की हाँक शून्य कर,
देखो — तीर-कमान चला है।

देख गुलामी छोड़ के तेरी,
आगे अब सम्मान चला है।

देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'