मेरे कस्बे के घर से
दिल्ली तक—
एकदम तड़के,
एक रेलगाड़ी चलती है।
सुबह-सवेरे
टिकट खिड़की पर,
छोटी-छोटी सड़कों पर
आपा-धापी चलती है।
कुछ साधू,
कुछ नमाज़ी,
कुछ सरदार,
और कभी-कभी एक-दो 'सर' और 'सिस्टर'
आपस में बतियाते हैं।
सड़क, बिजली, पानी,
नई-नई सरकार
और घूस के व्यवहार पर
चिंता जताते हैं।
कुछ चश्मिश चेहरे—
नई उम्र के—
रोज भागते हैं दिल्ली,
कुछ पढ़ने,
दुनिया से लड़ने,
कुछ कमाने, रूठने-मनाने।
एक बाप की बड़ी बेटी एम्स में भर्ती है,
दूसरे को छोटी के ब्याह की जल्दी है।
कुछ थैले लटकाकर दिल्ली आ रहे हैं,
तो कुछ मुँह लटकाकर।
कुछ बूढ़े,
कुछ बच्चे,
कुछ अधमरे जवान,
और कभी-कभी मैं भी
'दिल्ली' हो आता हूँ।
धक्का देकर
गाड़ी में चढ़ जाता हूँ।
लोहे की सीधी पटरियों पर
सरकते-सरकते
जब थक जाता हूँ—
तो कुछ पेड़ दिखाई देते हैं।
तब थकान काफ़ूर हो जाती है।
चिंता मिट जाती है।
सीट को लड़ते-लड़ते—
जीने की उम्मीद नज़र आती है।
देवेश वशिष्ठ'खबरी'
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