5/5/09

खबरी की एक गज़ल


हुनर भी सब चुक गया है, मुस्कुराने का
अब जमाना लद गया है- दिल लगाने का


छांव, बारिश, नीम, नदिया- सब पुरानी हो गयी
जबसे चलन चला है- मेहमानखाने का


फोन वाले प्यार की तासीर कम होती रही
कब से वाकया नहीं हुआ- सपनों में आने का


होली, दीवाली, ईद- सब दरिया में जा कर मर गए
अब सलीका खो गया है रंग लगाने का


हर रोज मुझसे घूंट भर- छूटता सा तू रहा
और जमाना चल पड़ा- हर चीज़ पाने का...


देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

6 टिप्‍पणियां:

  1. फोन वाले प्यार की तासीर कम होती रही
    कब से वाकया नहीं हुआ- सपनों में आने का

    -बहुत सही!!

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. हुनर अब नया आ गया है
    पोस्‍ट लगाने का
    और
    टिप्‍पणियां पाने का।

    अपनी बात जमाने को सुनाने
    और जमाने की बात को
    खुद गुनगुनाने का।

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  4. सीधा दिल को छूती है ये रचना...

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  5. हर रोज मुझसे घूंट भर- छूटता सा तू रहा
    और जमाना चल पड़ा- हर चीज़ पाने का...
    bahut khoob.....sundar gazal ke liye dhanywaad....yatharth darshati hui prastuti hai.....

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  6. शुक्रिया समीर लाल जी... आपकी टिप्पणी की सुरक्षित गारण्टी तो हमेशा रहती है... वाचस्पति जी पोस्ट लगाने का हुनर अब आया नहीं है बल्कि खोता जा रहा है... पहले हर सप्ताह सात पोस्ट लगाता था- अब सात सप्ताह में एक पोस्ट कर पाता हूं...
    परिहार जी रचना ने आपके दिल को छूआ, सार्थक हुई...
    शिवानी जी ध्यान देने के लिए आपका भी धन्यवाद...

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