30/10/22

तबाही मेरी

डूब गई रौशनाई मेरी

तुम्हें देखनी है तबाही मेरी ?

घर नहीं लौटना तो इतना बता दो

कहां रखी है दवाई मेरी ?

कैसे यकीन दिलाऊं, एक दौर था

होती थी वाहवाही मेरी 

तुम्हारे संग कुछ लिख नहीं पाया

और सूख गई सियाही मेरी 

अब तुम कहो वो ही सच है

कौन मानेगा गवाही मेरी ?

अब लौट भी आओ, क्या फर्क पड़े 

अकेली ही होगी विदाई मेरी 

मेरी तितली के पंखों में धंस गए कांटे

यही फसल थी उगाई मेरी ???

@ देवेश वशिष्ठ खबरी (अक्टूबर 2022, ग्रे.नो.)

25/1/22

डर

डर डर कर और मर मर कर लगे रहो बन घनचक्कर अकर बकर तुम करो फिकर तुम सिर पटको ये संगमरमर कंकर को शंकर समझोगे कूकर को भयंकर समझोगे बेमौत मरोगे तय ही है उल्लू को ईश्वर समझोगे तीर्थंकर उसको बना दिया जिसकी कोई औकात नहीं उसके हंटर से दुम कांपी जिसकी कोई साख नहीं वो अजर अमर तुम झुकी कमर मर जाओ ! या फिर लो टक्कर - देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

सपनों को खा जाने वालों

सपनों को खा जाने वालो
मेहनत को कब्जाने वालो 
हमने अपने हर सपने में 
अपनी जान छुपा रक्खी है
 
तुम आंसू पर रोटी सेको 
हमने आग जला रक्खी है

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

प्रेम के प्रमेय

प्रेम में भी 
सीधी रेखाओं के 
काटने से ही बनता है कोण !
प्रेम की समानांतर रेखाएं भी 
अनंत तक करती हैं मिलने का इंतज़ार ! 
प्रेम की ज्यामिती के त्रिकोण में भी 
हमेशा दो भुजाओं का योग 
तीसरी से बड़ा होता है !
प्रेम की छटपटाती धुरी भी
घेरा ही बनाती है !
फिर भी जाने क्यों 
कभी सिद्ध नहीं हुए 
प्रेम के प्रमेय..?

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

अब क्या मर जाएं ?


और तेरे कितने गीत गाए
अब क्या मर जाएं ?
बच्चों को भूख भी लगती है
ये जाकर किसे बताएं ?
तेरी सलामी में दोहरे हो तो गए
तेरे खेल के मोहरे हो तो गए
तुम्हारी सब कैंची हमीं पर चलीं हैं
और हमीं जयकार लगाएं 
और तेरे कितने गीत गाए
अब क्या मर जाएं ?

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

हवा हवाई


अकड़  के  नहीं  चल रहे हैं
बस हम ठंड से लड़ रहे हैं

कोई अमीरी वमीरी नहीं आई
ये बाल फिकरों में झड़ रहे हैं

कंधे में दर्द था सो झटकी गर्दन
वो खामखां हम पर बिगड़ रहे हैं

न हूर की परियां,  न ज़मीन बाकी हैं
किस बात की खातिर जंग लड़ रहे हैं

दर्द का दरिया न कोई बड़ी कमाई है
सब हवा हवाई हैं जो गीत पढ़ रहे हैं 

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

दरिंदा

ये क्या कम लड़ाई है कि ज़िंदा हूं
ऐ मौत मुझे माफ कर.. शर्मिंदा हूं !

उसे इश्क था मुझसे, बड़े हिसाब का
मुझे कुर्बान होना था, उसका चुनिंदा हूं !

ख़ामोशी से ज़िबह होता, ठीक था 
लेकिन मैं चीख़ उठा, ऐसा दरिंदा हूं 

मेरी गर्दन पर छुरी बस चलने वाली थी 
फिर याद आया मैं पर वाला परिंदा हूं

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

तुम्हारी उदासी







तुम्हारी उदासी बासी लगती है
करवट वाली काशी लगती है
ऐसा लगता है कि मुझे फूंककर
तुम्हें मिली शाबाशी लगती है
तुम्हारी उदासी बासी लगती है

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

डर







जब जब मैं डर जाता हूँ
बड़ा हिम्मतवाला कुछ कर जाता हूं
जब-जब मौत मुकर्रर होती है
मैं जिंदा रहता हूँ न कि मर जाता हूं

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

ज़रूरी है...

शायद अब पीना ज़रूरी है
फटी जेब को सीना ज़रूरी है

सिर्फ दाद मिलना काफी नहीं
शायर का जीना ज़रूरी है

बिना मेहनत कैसे अमीर हुआ वो?
मेरे हर कौर में पसीना ज़रूरी है

घर से दफ़्तर में कट रही उम्र सारी
मंदिर ज़रूरी न मदीना ज़रूरी है

बहुत रोज़ हुए हाथ मिलाए हुए
दोस्त का अब सीना जरूरी है

 - देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

अब सर्दी कब आती है


गैया का कंबल, वो तुलसी का कपड़ा
वो तिल वाली टिक्की, वो गन्ने की राव 
वो टोपे, वो स्वेटर, वो बाबा की गोदी
वो उपले, सरकंडे, शकरकंदी के अलाव
बनिया की दुकानें, मूंफली वाली तानें
वो रुपया, अठन्नी, चवन्नी के हिसाब
अब बस ठिठुरन लाती है
अब सर्दी कब आती है ?

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

ख़ून

चल तूने ये सुकून दे दिया 
मुझे भी जंगी जुनून दे दिया

जो नासूर बन गए कुरेदकर
सहलाने को नाखून दे दिया

मैं कभी थाने तक गया नहीं
तूने मेरे हाथ कानून दे दिया

तूने तो आज़ादी भी नहीं दी
और मैंने अपना खून दे दिया

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

इश्क के दूजे दर्जे में


हम इश्क के दूजे दर्जे में
बस जैसे-तैसे पास हुए 
धीरे-धीरे लिखते-रटते
पूरे सब अभ्यास हुए !

पर वो जो आला नंबर थे
जो इंसा नहीं कलंदर थे
जब पूछा उनसे कैसे हैं ?
वो सब भी हम जैसे हैं ।

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

24/1/22

घाव


तुमने कुरेदा भी वहीं जहां घाव था 
मैं मंजिल नहीं बस एक पड़ाव था

जिसे ज़िंदगी समझा सब लुटा दिया
मैं उसके लिए सिर्फ एक दांव था !

फिर भी डूब गया वो किनारे न लगा 
जिसके लिए मैं कागज था, नाव था !

उसे बचाने में मुझे फिर डूबना पड़ा
पुराना इश्क था, बिल्कुल शराब था

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

होठों के प्रेम-प्रपंचों से


होठों के प्रेम-प्रपंचों पर
कितने कागज़ बर्बाद किए 
कितनी रातें नीदें जागीं
कितने आंसू आबाद किए ?

तब काश कलम को कह देता
बस आंसू लिखना अच्छा है
बाकी दुनिया में झूठ भरा
आंख का पानी सच्चा है

-देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

#ख़बरी #नई_वाली_हिंदी

बहाने


ये दुनिया रंगीन बहुत है
पर रंगीनियां महंगी बहुत हैं

मेरी नौकरी है मतलब भर की
और घर की ज़रुरत बहुत है

ये पहाड़ ये नदियां,समंदर-वमंदर
जाना तो है पर सर्दी बहुत है

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

#ख़बरी   #नई_वाली_हिंदी

3/12/21

प्रेम से उचटे हुए मन

कहीं भी जाएं

कितना भी कमाएं

नदी, पहाड़ी, तीर्थ, संगम

कहीं भी घूम आएं

प्रेम से उचटे हुए मन

सो नहीं सकते

वो हंस नहीं सकते

कभी वो रो नहीं सकते।


प्रेम से उचटे हुए मन

सबसे शापित हैं

उनके माथे पर सभी की

हाय अंकित हैं 

प्रेम से उचटे हुए मन 

नर्क जीते हैं

रोज कड़वा घूंट भरकर

ज़हर पीते हैं


प्रेम से उचटे हुए मन

खुद को खाते हैं

अंतर्मुखी होकर

स्वयं से हार जाते हैं

प्रेम से उचटे हुए मन

टूट जाते हैं

उनके सभी सपने

शिकारी लूट जाते हैं


प्रेम से उचटे हुए मन

मौत से बदतर

प्रेम से उचटे हुए मन

तोड़ते हैं घर

प्रेम से उचटे हुए मन

में निराशा है

सबसे मुश्किल लिखना होता 

इसकी भाषा है


प्रेम से उचटे हुए मन

व्यर्थ जीते हैं

उनके हिस्से के कलश

सचमुच ही रीते हैं

प्रेम से उचटे हुए मन

बहुत व्याकुल हैं

दिख रहे जिंदा, लेकिन

लाश बिल्कुल हैं

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

रात 1.08 बजे 

3 दिसंबर, 2021 (नोएडा)

2/11/21

तुम कैसे हो ? हम बढ़िया हैं !

 





तुम कैसे हो ? हम बढ़िया हैं 

एक गैया है.. दो पड़िया हैं

हम बढ़िया हैं 


फ्लैटों में पलते पोमेरियन

इस आंगन में चिड़िया हैं 

हम बढ़िया हैं 


वहां हाथ-हाथ में इन्फेक्शन ?

सब जुड़ी हुई यहां कड़िया हैं 

हम बढ़िया हैं 


वहां प्रोटीन कैल्शियम की गोली

यहां माटी है और खड़िया हैं 

हम बढ़िया हैं 


वहां दीवाली हैप्पी है 

यहां दीपक हैं, फुलझड़िया हैं

हम बढ़िया हैं 

- देवेश 'खबरी'

...नहीं !










दसियों साल से साथ हैं लेकिन

दस लम्हे भी अपने नहीं !

लंबी चौड़ी रात हैं लेकिन

दो सपने भी अपने नहीं !

 

उनसे पूछो जिनने हमको 

जीवन भर का साथ दिया !

चलना है तो चले जा रहे

कदमताल में 'अपने' नहीं !


तुझमें मुझको, मुझमें तुझको

दो दुश्मन से दिखते हैं

एक मांद है, एक म्यान है

इंसा हैं, तलवारें नहीं !


तेरी भी तो क्या मजबूरी

हिस्सा हिस्सा खत्म हुई,

जीने-मरने और रोने में

कितनी सारी रातें.. नहीं ?


6 बाई 6 के एक बिस्तर पर

कितनी हैं दीवारें..? नहीं? 

एक-दूजे को मार चुके है

अब औरों को मारें.. नहीं?


एक पटरी की खातिर दोनों

पहिये आगे बढ़ते हैं

उस नाज़ुक पटरी के ऊपर 

कितने बोझ हमारे.. नहीं?


तू भी चाहे अच्छा-अच्छा

मैं भी अच्छा बनना चाहूँ

अच्छा-अच्छा करते करते

काम बिगाड़े सारे.. नहीं?


दफ्तर से घर.. घर से दफ्तर

दिन कट जाने सारे नहीं ?

तेरे-मेरे बटुए में हैं

कितने सारे ताने.. नहीं?


आज धूप है, कल खप लेंगे

सर्दी आनेवाली है

सब कपड़ों को धूप दिख दो

काम पड़े हैं सारे .. नहीं!


- देवेश खबरी 


23/10/20

ए भाई! जरा समझाई… ये मौत कैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

जब कुछ असर न करे

गुजर-बसर न करे

सब अनमना सा हो

कोई फिकर न करे

जैसा है... बिल्कुल ऐसी ही होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

कमाई का मन न हो

खरच को धन न हो

दुश्मनी भी करें किससे

कुचलने को फन न हो

जो कटे जा रहा है... उस वक्त जैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

टूटने का गम न हो

जोड़ने को हम न हो

खो गया सो खो गया

ढूंढ़ने का दम न हो

जो छूट गया पहाड़ पर.. पत्थर जैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

रात-रात भर घिसता कालिख

सुबह-सुबह मर जाता हैं

कैसे-कैसे भाव उमड़ते

शब्द कहां जुड़ पाता हैं

लिखी सकी ना कभी जो कविता... बिल्कुल वैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

जैसी भी हो.. बनी रहे घर

फुर्सत कब है मरने की

कोई रस्ता.. या.. ना हो

चला-चली बस चलने की

पांव तले जो लगा था टूटा... चक्के जैसी होगी ?

ए भाई! जरा समझाई ये मौत कैसी होगी ?

 

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

रात 11.53 बजे (22 अक्टूबर 2020, ग्रे.नोएडा)



14/7/17

अबे ओ दल्ले ! सुनो...















अबे ओ दल्ले
सांप की केंचुली में छिपे जोंक
तुम सबसे घिनौने तब नहीं होते 
जब बनते हो प्रहरी
और हाथ में डेढ़ फुट का डंडा
या वर्दी पर टंके सितारों के रुआब में 
तुम उसे भगाते हो थाने से
जो भेड़ियों से भागकर 
घूंघट भर हिम्मत जुटाकर 
मन में प्रलंयकारी प्रण करके पहुंचती है
और तुम्हारीं 
लपलपाती फटी जीभ तक पहुंचे 
भोग का प्रकोप 
उसकी बची खुची 
अस्मत-किस्मत-हिम्मत को भी 
चीर देती है

अबे ओ दल्ले
खादी के पीछे के रंगे सियार 
तुम सबसे अश्लील तब नहीं होते
जब दलालों के पूरे कुनबे के साथ बैठकर
मनाते हो जश्न हादसों का
चिताओं का ताप, लाशों की सढांध 
तुम्हारे मुंह में पानी लाती है
और तुम तुम्हारी तोंद से ज्यादा लील जाते हो

अबे ओ दल्ले
छाती पर बैठ मूंग दलते सरकारी दामाद
तुम तब सबसे हरामखोर नहीं होते
जब जिंदा गरीब की खाल खींचते हो
उसके जी को खौलाकर तिल तिल मारते हो
लेकिन उसके माथे पर लिखे कर्ज का 
सूद भर भी उसे नहीं देते
पर उसी के हाड़-मांस-पसीने पर 
ठहाके लगाते हो
लाढ़ लड़ाते हो
बच्चे पढ़ाते हो
और उसकी किस्मत की फाइलों पर 
कतारों के दलदल के दस्तखत करने में 
तुम्हारे हाथ नहीं कांपते

अबे ओ दल्ले
तुम सबसे कमीने, सबसे कुटिल, सबसे चालबाज तब होते हो
जब हाथ में थाम लेते हो माइक
और मार देते हो लाख सपनों की पैमाइश
तुम सबसे हरामखोर, सबसे अश्लील तब होते हो
जब और दल्लों की तुम्हारी ओर उछाली चाप को
तुम हजारों घुंटी हुई सांसों का दम घोंटकर उछलकर लपकते हो
तुम सबसे अमानवीय तब होते हो
जब तुम सवाल बेचते हो
क्योंकि दल्लों के दलदल में फंसी छटपटाती जान के पास
सिर्फ सवाल होते हैं !

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
14 जुलाई 2017 (नोएडा)

10/3/17

रुंधे गले से...

मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जैसे सबकी आवाज उठाओ,
और खो बैठो अपनी आवाज
ऊं... ऊं... घुर्र घुर्र.... बस
जाहिलों की तरह...
मन ही मन...
इंतजार करूं...
कोई शिकार करे... मैं जूठन खाऊं...


मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जब मन में विरोध हिलोरे मारे...
और बैठ जाऊं मन मार कर...
... श्श्श्श्श्शचुपचाप...
झूठी बातों के बीच
भूल बैठूं अपना सच
और कर लूं यकीन,
मान लूं ललाट लिखा...


मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जब पचा लूं हर जिल्लत को...
पूरी बेशर्मी से...
मार दूं अपने हर विचार को
नाजायज औलाद की तरह...
और भारी लबादों में उनके लिए ढूंढ़ता फिरूं
उनके बाप का नाम...
मार कर खुद को...


मुश्किल होता है नैसर्गिक होना
जब हर साबित करने पर तुलता हूं...
ये मेरा झूठा नकाब नहीं
यही सच्चाई है... कसम से...
गंगा कसम... मां कसम...
मेरी कसम... उसकी...
हां उसकी भी...
रुंधे गले से...


देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705
03-03-2010

14/6/13

तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो..।

सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

रोज की मेहनत, लिखा-पढ़ी
सब इसीलिए तो है...
तुझ तक पहुंचे मेरा खत
बस इसीलिए तो है...
प्यार से खत को खोलो, और फिर और प्यार से चूमो...
हरी हरी सी घास पर जैसे नंगे पैरों घूमो...
आजादी की खुली हवा में झिलमिल झिलमिल हो... धूप छांव का खेल चले और पीपल छाया हो...   
फिर होगा वहीं बसेरा... 
कुछ ना तेरा ना मेरा...
अपना सब संसार जो इतने भर से हो...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

प्रेम व्रेम की परी कहानी, सुनी सुनाई बातें... 
एक था राजा एक थी रानी, नानी चरखा कातें...
एक कहानी चलो हमारी भी कुछ ऐसी हो...
जिसे सुने तो रोता बच्चा सो जाए खुश हो...
परी कथा में ऐसा कोई ताना बाना हो...
ऐसा ही कोई मीठा मीठा गीत सुनाना हो...
अपना भी एक छोटा सा घर हो...
और वहां न कोई भी डर हो...
अपना सब जी-जान जो इतने भर से हो...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...

सब इधर उधर की बातें...
जगती-सोती सी रातें...
बिन मौसम कुछ बरसातें...
कुछ जीतें और कुछ मातें...
एक तेरी मुस्कान जो इतने भर से हो... तो मेरी पहचान उन्हीं होठों से हो...


देवेश वशिष्ठ खबरी’ 13-06-13, रात 3.03

1/12/12

प्यार करते थे बाबा...!


बाबा,

अम्मा ने लगाया था ना वो नीम का पेड़...
जिसकी गोद में ही आती थी आपको नींद...
और उसी की छांव में आपने ली थी आखरी सांस...
अब हम नई पीड़ी के शहरिये हो गए हैं...
और सोचते हैं कि सिर्फ हमें ही आता है... 'प्यार करना' !

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
 
9953717705

8/9/12

प्यार का पेड़

हमने पेड़ लगाना सीखा
पंखुड़ियां सहलाना सीखा
सुबह-शाम फिर टुकुर-टुकुर
उसकी बात बताना सीखा
यूं ही बातें कहते लिखते
आज यहां तक आया हूं
राज की बात बताऊं , मैं अब...
उसी पेड़ की छाया हूं...

--- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

24/3/12

मां नाराज है।


तुझसे से दूर हुआ हूं बेशक,
पर मां तेरा हूं।
तेरे आंगन आता जाता,
नित का फेरा हूं।
तुझसे सीखा बातें करना
चलना पग-पग या डम मग
तूने कहा तो मान लिया
ये दुनिया है मिल्टी का घर
मिट्टी के घर की खुशबू तू,
तू गुलाब सी दिखती है
रूठी-रूठी मुझसे रहती
लेकिन फिर भी अच्छी है।
मां मेरी अब मान भी जाओ
अब तो हंस दो ना
तेरा लाला तुझे पुकारे
प्यार से बोलो- हां!
मुझे पता है तेरे आंसू
व्यर्थ नहीं बहते।
पर तू डर मत सांझ नहीं हूं
नया सवेरा हूं।
तुझसे दूर हुआ हूं बेशक,
पर मां तेरा हूं।
तेरे आंगन आता जाता
नित का फेरा हूं।

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9953717705

14/9/11

कॉन्ट्राडिक्शन

(कई दोस्तों ने कहा कि कॉन्ट्राडिक्शन के अलग अलग टुकड़ों को एक जगह पर लाया जाए। इसीलिए...)

कॉन्ट्राडिक्शन-1 (मेरे जिस्म में सरहदें हैं... )
-----------------------------------

दो आंखें हैं... एक जोड़ी होंठ... दो बाहें... कुल मिलाकर एक पूरा जिस्म है... कुछ और हिस्से हैं उस जिस्म के... कुछ उभरे हुए तो कुछ गहरे... जिस्म गीला है... मैं शायराना हूं... मैं रूहानी हूं... मैं जिस्मानी हूं...

एक जोड़ी बाहें एक और जोड़ी चाहती हैं...
एक जोड़ी आंखें अक्सर एक और जोड़ी तलाश लेती हैं...
एक जोड़ी होठों को शिकायत है एक और जोड़ी न मिलने की...
मुझे लगता है कि मेरे ही जिस्म में सरहदें खिंच गई हैं...

तुम्हारी शिकायतें अक्सर मुझे सुनाई देती हैं... तुम्हारे होंठ एक लम्हे के लिए कुछ भी नहीं बोलना चाहते... मैं अक्सर खामोश नहीं रह पाता... तुम कहती हो मुझे जीना नहीं आता... तब मुझे लगता है जीना जरूरी भी नहीं... तुम्हारी एक जोड़ी बंद आंखें नहीं बोलती और मुझसे अक्सर कह देती हैं कि मैं मैं जाहिल हूं... मैं तुममें डूब मरना चाहता हूं...
जिस्म बेलिबास नहीं है... होना चाहता है... दिल में दरिया है... दरिया में उथलपुथल है... कई लोग हैं... उथलपुथल से बेपरवाह हैं... बालों में भाप है... आंखों में खून है... रगों में लाली है... बस... रगों में सिर्फ लाली है...

मुझे रंग याद आते हैं... मुझे सर्दी का मौसम याद आता है... मुझे लता... रफी और मुकेश के गाने गुनगुनाने का मन करता है... तुम कहती हो मैं जमीन से जुड़ा हूं... मुझे लगता है कि तुम मुझे देसी कह रही हो... मैं फिर भी बोलता रहता हूं... तुम अक्सर खामोश रहती हो...
सब कुछ उल्टा पुल्टा है... जिस्म के चारों ओर शोर हो रहा है... कान परेशान हैं... वो कुछ सुनना नहीं चाहते... जिस्म बार बार सबको मना करना चाहता है... हाथ कानों को गले लगा
लेते हैं... कानफोड़ू आवाजें हैं... सीने तक उतरना चाहती हैं... सीने के दरिया में उथलपुथल इसी वजह से है...
एक करवट एक नई सलवट बना देती है... मुझे सलवटें अच्छी नहीं लगतीं... मुझे बस तुम अच्छी लगती हो... सलवटों अक्सर सरहद बन जाती हैं... पड़ौसी सलवट शरारत करती है... पहली सलवट को शरारत पसंद नहीं है...
जिस्म को खामोशी पसंद है... जिस्म खामोश हो जाना चाहता है... जिस्म आवाजों से बेपरवाह है... कल ही किसी से सुना है कि जिस्म को अपनी शर्तों पर जिंदा रहना चाहिये... जिस्म को बाकी जिस्मों से फर्क नहीं पड़ता... जिस्म आजादी चाहता है... जिस्म गुलाम है...
ये सलवटें झगडालू हैं... जिस्म पंचायतें लगाता है... जिस्म चुगली करता है... जिस्म मौसम का मजा लेता है... जिस्म बुरे दौर को भूल जाना चाहता है... जिस्म खुदपरस्त है... जिस्म स्वार्थी है... जिस्म बेचैन जंगल को खूब गालियां देना चाहता है... फिर उसी जंगल में खो जाना चाहता है... जिस्म पहाड़ों पर जाना चाहता है... फिर संन्यासी हो जाना चाहता है...
आंखों को किताबें पसंद हैं... चेहरे को नकाब पसंद हैं... वैसे आंखों को आंसू भी पसंद है... लेकिन ओठ आजकल तौबापसंद हो गए हैं... रुह बेचैन जंगल में बेचैन है... पहाड़ों पर चली गई है... जिस्म खामोश है...

मौसम बदल गया है- (कॉन्ट्राडिक्शन-2)
-----------------------------

कई निगाहे हैं... उनमें में एक पुराने गुलदस्ते के सूखे गुलाब पर टिकी है... लेकिन एक वहां से हटकर किताबों की बेतरतीब अलमारी में कुछ ढूंढ रही है... इस निगाह को वो लावारिस खत नहीं मिल पा रहे हैं जो आवारगी के दौरान लिखे गए और वो बंजारे खत इन किताबों के हुजूम में कहीं छिपा दिये गए... अब ढूंढने से भी नहीं मिलते... बिस्तर पर कुछ गर्म सलवटें लेटी हैं... जिंदगी भर का आलस एक साथ अंगडाई ले रहा है... एक सलवट दूसरी को छू रही है... वो छुअन बहुत हसीन है...
अलाव है... आग है... सर्दी का मौसम है... हाथों की गुस्ताखी है... हाथ आग को चेहरा दिखा रहे हैं... एक शॉल में दुबकी दो जान बैठी हैं... एक के हाथ में पुरानी डायरी है... दूसरे के होठों पर प्यार के गीत हैं... बारिश हो चुकी है... मौसम विज्ञानियों से बिना पूछे ही कोयले वाला बता गया है... कि बर्फ गिरेगी... बुरांश पर फूल नहीं आये हैं... बुरांश को न्यौता है... बर्फ नाज़ुक है... बुरांश पर झरने लगी है...
डायरी के पन्ने कई दिनों बाद उलटे हैं... हर पन्ने पर तारीख है... हर गीत में एक कहानी है... डायरी के पन्ने उड़ रहे हैं... शाल में दुबकी दो जान एक ही दिन में कई तारीखें पढ़ लेना चाहती हैं... आज की रात की कहानी फिर कभी गीत बनेगी... डायरी खुश है... जैसे आज के ही दिन के लिए सारे अर्से गीत बने थे...
एक जान को नींद आ रही है... वो दूसरी जान की गोद में लेट गई है... एक जान सो गई है... दूसरी सोना नहीं चाहती... आग को चेहरा दिखाता दूसरी जान का एक हाथ नर्म हो गया है... अब वो बालों में गुदगुदी कर रहा है... वो छुअन बहुत देर तक नहीं थकती... वो छुअन बहुत हसीन है...
बिस्तर की नर्म सलवटें अकेली हैं... नींद टूट गई है... चिपचिप है... उमस है... दिल्ली की गर्मी है... बिजली चली गई है... एसी बंद हो गया है... किताबें बेतरतीब हैं... एक निगाह फिर सूखा गुलाब देख रही है... दूसरी बेतरताब अलमारी पर अटकी है... एक पुरानी डायरी है... आग को चेहरा दिखा दिखाने वाले कठोर हाथों में आ गई है... गर्मी में पुरानी डायरी पंखा बन गई है... ज़ोर ज़ोर से हिल रही है... पंखे की तरह झल रही है... डायरी के पन्ने कई दिनों बाद उलटे हैं... हर पन्ने पर तारीख है... हर गीत में एक कहानी है... पन्ने जोर जोर से हवा में उड़ रहे हैं... हवा कर रहे हैं... डायरी से कुछ पन्ने रूखे फर्श पर गिर पड़े हैं... निगाहों की तलाश खत्म हो गई है... बंजारे खत मिल गए हैं... बेकारी का दौर है... दोपहर है... जिंदगी भर का आलस एक जान में भरा है...
इन दोपहरों की कहानी गीत नहीं बनती... खत वापस डायरी में ठूंस दिये गए हैं... डायरी फिर भर गई है...

---------

जाओ भगत... (कॉन्ट्राडिक्शन-3)
------------------------

निष्ठुर... उसके फोन में मेरा नाम इसी नाम से दर्ज था, और मैंने अपनी फोनबुक में उसके बारे में दुष्ट लिख रखा था... मैं अक्सर अपनी प्रेमिकाओं के वो नाम भूल जाया करता था जो उनकी हाईस्कूल की मार्कशीट में दर्ज थे या जिनके साथ मेरी पहली मुलाकात उनसे हुई थी... ये बात शायद अजीब लगे लेकिन शहर बदलने के बाद मैं अपनी उस प्रेमिका को सिर्फ इसलिए नहीं ढूंढ पाया कि उसे बिट्टू के नाम से कोई नहीं जानता था...
यानी ये दूसरी प्रेमिका थी... (अगर मैंने कहीं अपने लेखन में सोलन की चिड़िया का भी जिक्र किया है तो फिर तीसरी...) बुरा होना इस दौर की समझदारी थी, इसलिए मैं उसे और वो मुझे अक्सर बुरे नामों से पुकारता था... मेरे कमरे की दीवारें छोटी थी, और उसकी छत को में एकटक देखता था और अक्सर उस पर लटकते सपने को तोड़ लेता था... उन दिनों में उनींदा रहने लगा था...
मैं अपनी बकवास और फ्रस्टेशन को किसी से न कह सकने की स्थिति में अक्सर कागज पर उतार देता, और तालियां बटोरता... मुझे इसकी आदत हो गई थी, और अब तुम्हारे बिना भी मैं आत्ममुग्ध हो सकता था...

-तुम्हें जुकाम हो गया है.
-कल भीग गया था-
-कब?
-जब पहली हिचकी आई थी रात को- उसके बात सोने नहीं दिया तुमने- बहुत बारिश हुई- तकिया गीला हो गया था-
-तो मैं नहीं आऊंगी आज तुमसे मिलने- पर तुम्हें तो बुखार हैं- तुम भी ना, जरा भी खयाल नहीं रखते अपना-
-पर वो काम तो तुम्हारा है- मुझे तो हमेशा तुम्हारा खयाल रहता है-
-तुम हो कहां अभी ?
-आई पॉड में जा छिपा हूं- दोनों कानों में ठूंस लिये हैं ईयर फोन- कि तुम्हें न सुन सकूं
-तो मैं जाऊं?
-तुम हर पल पूछती हो. और मैं हर बात कहता हूं- जाओ ना,
-फिर तुम क्यों बुलाते हो?
-तुम जाती क्यों नहीं हो.
-कितने कठोर हो ना तुम
-हां, पहाड़ की तरह
-उफ़, फिर पहाड़… तुम उतर क्यों नहीं आते मैदानों में
-और तुम क्यों नहीं चली जाती वापस, पहाड़ों में
-देव, अब पहाड़ मैले हो गये हैं- सावन पिछली बार भीग गया था- अबकी नहीं आया- पिछली बर्फ को भी सर्दी लग गई थी- अबकी बुरांश के पेड़ रूठ गये हैं- देवदार ठूंठ बन गये हैं- जिस नदी के किनारे पानी में पैर डालकर तुम मेरे बालों से चुगली किया करते थे, वो अब झील बन गई है- घाटी में बहुत सी मिट्टी जमा हो गई है- सुना है वहां एक बड़ा बांध बनने वाला है- सब डूबने वाला है- ये पहाड़ दुखता है-
-लेकिन तुम्हें तो पहाड़ अच्छे लगते थे ना बिट्टू-
-लगते थे, पर सिर्फ तुम्हारे साथ- अब नहीं देव.
-तुम कुछ खाओगी- ये काली रातें तुम्हें डराती नहीं हैं- इतनी दूर से रोज तुम कैसे आ जाती हो मेरे पास- रास्ते में कोई नहीं पकड़ता तुम्हें... मुझे डर लगता है-
-देव मेरे पास एक सेब है- दोनों खाएंगे- आधा आधा
-नहीं मुझे खट्टा दही खाना है- मम्मी से झगड़ना है
-तुम अपनी मम्मी से इतना झगड़ते क्यों हो देव-
-तुम मेरी मम्मी में घुस जाती हो- जब वो लाड़ करती हैं तो तुमसे लड़ने का मन करता है- तुम तो चुड़ैल हो ना
-और तुम मेरे पायलेट
-तुम्हें याद है-
-हां याद है, लेकिन जोर से मत बोला करो- सब समझ जाते हैं-
-मुझे तुम्हारी खुशबू चाहिये- सफेद बादल को दे देना- वो आकर मेरी आंखों में बैठ जाता है-
-और तुम अपनी मीठी सी हंसी मुझे भिजवा देना- उसी बादल को लौटा देना चलते वक्त- वो मेरे दिल में बैठा जाता है- भेजोगे ना-
-देव, मुझसे कुछ कहो ना-
-जो मैं कहूंगा, वो तो तुम्हें पता है-
-हां मालूम है- पर एक बार ऐसे ही सुनने का मन कर रहा है-
-मैं नहीं कहूंगा- सब सुन लेंगे- लौटते बादलों के कान में कह दूंगा- तुम उनसे पूछ लेना-
-देव मेरे साथ घूमने चलो-
-कहां-
-नील नदी के पास-
-तब ?
-जमीन के नीचे नीचे बहना मेरे साथ- झील फिर नदी बन जाएगी- और किसी को दिखाई भी नहीं देगी-
-लेकिन उसकी मछलियों का क्या?
-वो गुदगुदी करेंगी तुम्हारे पांवों में-
-लेकिन उसका पानी तो ठंडा होता होगा ना- तुमने जो सपना बुना था, वो पूरा हुआ या नहीं- मुझे तुम्हारा सपना ओढ़ना है-
-नहीं इस बार मैंने सावन बुना है- आंखों में उतर आया है वो- उसी से निकलती है नील नदी- कभी छिपी, कभी उघड़ी...
-और तुम्हारी सलाईयां, जिनसे तुम सपना बुनती हो- उन्हें तुम अपने बालों में लगा लेना- मैं तुम्हारी तस्वीर उतारूंगा- चीन की दीवार पर
-पर वहां तो प्लेन से जाना होगा ना- और वीजा भी बनवाना पड़ेगा, तुम कैसे जाओगे?
-तो नहीं जाऊंगा- नहीं उतारूंगा तुम्हारी तस्वीर- पर फिर तुम्हें हर वक्त मेरे सामने रहना होगा- फिर तुम मुझे याद मत करना- ये हिचकियां मुझे मार देती हैं-
-देव तुम बदल गए हो- कब से?
-जबसे नमस्ते बात खत्म करने के लिए और शुक्रिया ताना मारने के लिए इस्तेमाल होने लगा है- तबसे मैं भी बदल गया हूं-
----------

मुझे यहां नहीं रहा जाता- मुझे कहीं और जाना है- किसी दूसरी जगह- नहीं- किसी दूसरे वक्त में-
किस वक्त में जाना चाहते हो ? किसके पास?
भगत सिंह के पास- सुखदेव और राजगुरू के पास- उनके वाले स्वर्ग में-
उनके स्वर्ग में? तो क्या उनका कोई अलग से स्वर्ग होगा? क्या वहां ज्यादा ऐशोआराम होगा-
हां उनका स्वर्ग अलग है- उस स्वर्ग से सभी देवता भाग गये हैं- इंद्र का सिंहासन हिला दिया है- वहां जगह जगह फांसी के झूले हैं- वहां फांसी पर झूलने वालों की लंबी कतार लगी है- भगत बार बार हिन्दुस्तान की तरफ देखते हैं- फिर मेरी और तुम्हारी तरफ देखते हैं- और भागकर फिर फंदे पर झूल जाते हैं- पर इस बार भगत की जान नहीं जा रही है- भगत के भीतर कुछ छटपटा रहा है- भगत के पांव बहुत देर तक तड़पते रहते हैं- सुखदेव और राजगुरू भी छटपटा रहे हैं- बड़ा बेचैन माहौल है- भगत का तड़पना बंद होता है तो वो मुझे फिर देखते हैं- फिर तुम्हें देखते हैं- सुखदेव और राजगुरू रोना बंद कर देते हैं- जोर जोर से आवाज लगाते हैं- लेकिन मुझे सिर्फ तुम्हारी आवाज सुनाई देती है-

वो दिन बड़े लम्बे होते थे... सूरज सारी गर्मी से देव को झुलसाना चाहता था और देव के वो पूरी ताकत से लड़ने के दिन थे... मायानगरी से लेकर राजनगरी तक में धक्के खाना उन दिनों देव की ड्यूटी हो गई थी... कठोर दिन और निष्ठुर रातें... पर देव की सनक के आगे सब कट गये... धीरे-धीरे... मुझे न तो भगत सिंह की आवाज सुनाई दी, और ना ही राजगुरू की तड़पन... जैसे कह रहा हूं... जाओ भगत... सावन है... मैं अंधा हूं...

----------


तैयारी... (कॉन्ट्राडिक्शन-4)
---------------------

मैं दुनिया के सबसे वाहियात जोक सुनकर हंसना चाहता था, सबसे गंदी गाली किसी को देना चाहता था, और सबसे बुरी लड़कियों से मोहब्बत करना चाहता था… अक्सर लोग कहा करते थे कि दुनिया बिगड़ रही है, बूढ़े अक्सर इस बात का मलाल करते थे, और मुझे उनकी बातों पर आश्चर्य होता... मुझे मुझसे बुरा कोई नहीं दिखता था, सिर्फ मेरी दुनिया बुरी थी, बाकी सब उतना खराब नहीं था... मुझे मोहब्बत करनी थी... मैं बुराई ढूंढ रहा था...
लड़की उस शहर से थी जहां तक पहुंचते-पहुंचते गंगा सबसे गंदी हो जाती है... उसने बताया था कि दुनिया के सबसे बुरे अनुभव उसके पास हैं... और मैं ये सुनकर खुश हो जाता करता था... वो सांवली थी... मुझे लगता था कि वो मुझसे कुछ लंबी होगी... न भी हो शायद... पर कभी मैं उसके साथ खड़ा नहीं था... सिर्फ इस बात के अलावा कि मैं वाहियात हो जाता चाहता था... और मुझे एक बुरी लड़की की तलाश थी...
मैंने सोचना बंद कर दिया था कि किसी के साथ प्यार करते हुए जीया जा सकता है... मैं अक्सर सोचता था कि क्या किसी के गले लगकर सुकून से मरा जा सकता है... और जब मैं इस तरह की बातें किसी से करता था, लोग मुझे पागल करार देते थे... मुझे खुद लगता था कि मैं धीरे धीरे पागलपन की ओर बढ़ रहा हूं... मैं मेरे अंदर एक और बुराई की तासीर जानकर फिर खुश हो जाता था...
मुझे अपने बुरे होने पर पूरा यकीन था... उतना ही जितना मेरे पिता को मेरे होशियार होने पर था, या जितना मेरी मां को मेरे भोला होने पर... लेकिन फिर भी कई खालीपन थे, जो भरने पर आमादा था... मैंने कभी सिगरेट न ने पीने की कोई कसम नहीं खाई थी... कभी पिताजी ने मुझसे इस तरह का कोई वायदा भी नहीं लिया था... लेकिन फिर भी सिगरेट पीना मेरे लिए वैसी ही कल्पना थी जैसा एक सांवली बुरी लड़की का साथ... वैसे सिगरेट कभी भी पी जा सकती थी... और किसी लड़की के साथ रहना भी आजाद दिल्ली में कोई मुश्किल काम नहीं है... लेकिन फिर भी ये खालीपन मुझे बताता था कि पूरी तरह बुरा बनने के लिए मुझे सिगरेट पीनी चाहिये... और...
मैं अक्सर इंटरनेट पर सबसे बुरे लोगों के बारे में पढ़ता हूं... तो मैं कुछ देर के लिए निठारी के नरपिशाचों की तरह कल्पना में जीने लगता हूं... मैं किसी गुमनाम से या नामी कवि की कविता पढ़ता हूं तो लगता है कि पुलिस की मार और सरेआम बेशर्मी से भी बुरा सपनों का मर जाना हो सकता है... मैं रोज घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक के चक्कर काटना चाहता हूं... और अपने सारे सपनों को मारकर सबसे बुरा होने की कोशिश करना चाहता हूं...
मैं बुरा बनना चाहता हूं और सोचता हूं कि गांधी को गाली देकर बुरा बना जा सकता है... गांधी के नाम से जुड़ी कोई अच्छाई मेरे सामने आ नाची तो मैं थक जाऊंगा... इसलिए मैं गांधी का नाम नहीं लेता... मैं रास्ते चलते आवारा होना चाहता हूं... और उसी आवारगी में ऐसी हरकतें भी कि दुनिया हिकारत से देखने लगे... पर मैं ऐसा तब नहीं कर पाता जब पसीने से तरबतर कोई अंग्रेजी बोलने वाली और बेबकूफ सी दिखने वाली कोई सांवली लड़की रिक्शेवाले से मोलभाव करने लगती है और देर तक वो उसी संघर्ष में उलझी रहती है... मुझे उसकी परेशानी अपनी जैसी लगती है... और फिर मैं और बुरा होकर उससे नजर फेर लेता हूं... शायद उस वक्त में उससे ज्यादा बुरा नहीं हो सकता था... तब भी नहीं जब मैं उसकी इस मजबूरी का फायदा उठाकर उसे छेड़ रहा होता... और कुछ देर को ही सही वो उस संघर्ष से उबर पाती...
खैर बात दुनिया की सबसे बुरी लड़की की हो रही थी... और अक्सर लोग मुझसे कहते हैं कि आजकल की लड़कियां बिगड़ गई हैं... मैं उसके लिए खुद को तैयार कर रहा हूं..
----------


मैं तेरी मां... (कॉन्ट्राडिक्शन-5)
------------------------
उन दिनों में मां होना चाहता था और छत के पंखे के नीचे पसीने के तर तकिये को भूलकर घंटों दुनिया से बेहोश रहता था... दिमाग बाकी जिस्म से अलग होकर कहीं तैरने चला जाता था, या लगता था कि सिर्फ दिमाग सो गया है... बाकी बेहोश जिस्म देर तक जिंदा रहता था... और फिर मर कर ना जाने कैसे लौट आता था... जैसा भी था, अच्छा दौर था...
मैं तुम्हें अक्सर याद करने की कोशिश करता था... और जब बहुत सोचने पर भी तुम्हारा चेहरा... तुम्हारा रंग और तुम्हारी कोई पहचान मुझे याद नहीं आती तो मैं शराबी हो जाना चाहता था... मुझे लगता कि मैं तुम्हें न जानते हुए भी भावुक होना चाहता हूं... तुममें डूब मरना चाहता हूं... तुम्हें तमाम रंगों में से चुन लेना चाहता हूं और तुम्हारे माथे पर लाली मलना चाहता हूं... पर तुम मुझे याद नहीं आती थीं...
मैं उस दौर की उलझनों से निकलने के लिए बहस करता... सिगार पीता... या शायद बीड़ी... किसी दोस्त के कहने पर फोस्टर की बीयर और बैगपाइपर की शराब... और फिर इन सबसे निजात पाने के लिए कभी कभी तुम्हें याद कर लिया करता... इस सब से मैं अक्सर परेशान रहता और फिर और नशीला हो जाता...
मैं हमेशा चाहता कि तुम मेरा जिक्र करो... मेरा नाम लो और मै तुम्हें पुकार लूं... लेकिन न तो मुझे तुम्हारा नाम याद रहता और ना ही तुम्हें मेरा... और अचानक मुझे पता चलता कि मैं अब तक तुमसे नहीं मिला हूं... देर तक तकिये पर पसीना बहाता रहता और अक्सर पंखा चलाना भूल जाता... मैं अक्सर खामोशी में सोचता कि तुम्हारा अस्तित्व कैसा है...? मैं तुम्हारे लिए परेशान होना चाहता और तुम्हें ढूंढने की कोशिश करता...
मैं अक्सर तुम्हारे ना होने में होने की उम्मीद करता... कल्पनाओं में जीता... और तुम्हारे जिस्म की बनावट को अक्सर ओढा करता... मैं तुम्हें बेपनाह मोहब्बत करना सीख गया था... इसलिए तुम्हें जानना चाहता था... इसलिए मैं अक्सर तुम्हें पैदा कर लिया करता था...
तुम अगर उस दौर में होतीं तो मैं तुम्हारी मां बनता... वैसे तुम आज भी होतीं तो भी मैं मां ही बनता... हर बार तुममें खपने की कोशिश करता और निराश होकर बार बार आत्महत्या करता रहता... और इस तरह जीना सीखकर तुम्हें इस दुनिया का सामना करना सिखाता... मैं उन दिनों मां होना चाहता था... हर लड़के की तरह...


कहा ना- मैं जिस्मानी हूं- (कॉन्ट्राडिक्शन-6)

कितना अच्छा सपना है... मैं 74 साल का बूढ़ा हूं और थककर अपनी मां की गोद में बच्चा होकर जा छिपा हूं... बूढ़ा होते वक्त मैंने अपनी ढेर सारी प्रेमिकाओं पर कविताएं लिखी हैं और वो कविताएं इस दौर के प्रख्यात चित्रकारों को कूची चलाने के लिए सब्जेक्ट मुहैया करा रही हैं... और उन पेन्टिंग्स में नुक्स निकालने के लिए जब कोई मुझे बुलाता है तो मैं कूची उठाकर हर चित्र में इतने रंग भर देता हूं, वो पेन्टिंग परिभाषाओं के दायरे से बाहर हो जाती है...

मैं जाग गया हूं... अथाह रंगों की बौछारों में तुम्हें ढूंढ रहा हूं... और अपनी मां को भी... मेरे कान में अभी तकिये ने कहा है कि घर से मां आ रही हैं, दिल्ली... मुझसे मिलने... अब मैं घर नहीं जाता... बेरोजगारी में व्यस्त हूं, इसलिए मां ही आ जाती है... और अचानक दुनिया का सबसे समझौतेवादी इंसान नखरों से भर जाता है...

मैं चिल्लाता हूं...
मां पुचकारती है...
मैं खीजता हूं...
मां खयाल करती है...
मैं जमाने को कोसता हूं...
मां मेरी नजर उतारती है...
मैं उसे पुराने दौर की कहता हूं...
मां मुझे शादी करने को कहती है...
मुझे बेकारी से डर लगता है...
मां को मेरे पागल होने के खयाल से...
मुझे हंसना बेहूदा लगता है...
मां पल्लू में आंखें छिपाकर अक्सर रो देती है...
मुझे दुनिया के सब दर्द अच्छे लगते हैं...
मां चली जाती है...
ये दर्द मुझे कई दिनों तक बर्दाश्त नहीं होता...

मैं लकीर पीटता रहता हूं... वाहियात कविताएं लिखकर और पुराने असफल फ्रस्टेटिड लेखकों की तरह डायरियां भरकर खुद के महान कहलाने का इंतजार करता हूं... और तुम्हारे जाने के बाद इंतजार मेरी नियती और आदत बन चुकी है... मुझे मां का आना अच्छा नहीं लगता... लेकिन मैं मां के आने का इंतजार करता हूं... बहुत दिन हो गए... किसी से नहीं झगड़ा... किसी को नहीं कोसा... किसी पर नहीं चिल्लाया...

अचानक रात को ढाई बजे फोन कॉल आती है... दूर शहर में इंटरनेट पर बैठी कोई लड़की कहती है कि तुम्हारे लिखे में दर्द है... मैं कहता हूं कि मैं उनमें सिर्फ यही हो सकता है... वो कहती है उसे ये परेशानी अपनी जैसी लगती है... मैं कहता हूं ये इस दौर की सच्चाई है... वो कहती है वो इस दौर से बाहर आना चाहती है... मैं कहता हूं मुझे सिर्फ लिखना आता है... इस दौर से बाहर आना नहीं आता... वो कहती है वो मुझे जीना चाहती है... मैं कहता हूं फिर मुझे पढ़ना बंद कर दो... वो जानना चाहती है कि मैं ऐसा क्यों हूं... मैं सोचने लगता हूं कि उसे क्या जबाब दूं... जबाब ढूंढते ढूंढते सवेरा हो जाता है... उसका नाम पता पूछने से पहले फोन कट जाता है और मैं एक नए दिन के साथ नया दर्द लिए जागता हूं...

दो दिन पहले नाखून के किनारे एक खरोंच लगी थी, खरोंच घाव बन गई है... दर्द हावी हो गया है... बाकी सब दर्द छोटे पड़ गए हैं... जिस्म के दर्द आज भी तमाम दर्दों की दवा बन जाते हैं... मैंने कहा ना- मैं जिस्मानी हूं...

कॉन्ट्राडिक्शन 7- (सुसाइड नोट)

मेरे हिस्से के आसमान को एक जोरदार झटके से उलीच दिया गया है... मेरे रास्तों को रोक दिया गया है... मैं विरोध करना चाहता हूं... कहना चाहता हूं कि मेरी हिस्से की जिंदगी तय करना मेरी स्वतंत्रता होनी चाहिए... लेकिन स्वार्थी रिश्तों... मौकापरस्त समाज और जंग लगे घटिया संस्कारों की मजबूतीयों के हवाले से मेरे बहने पर पाबंदी लगा दी गई है... कहते हैं, अब मुझे तालाब होना होगा...
मैं विरोध करना चाहता हूं... कठोर हो जाना चाहता हूं... छूट जाना चाहता हूं... हिटलर बोल रहा है- ‘सच्चाई और झूठ में एक ही फर्क है... ठीक से प्रचारित झूठ भी सच लगता है... और कैसे भी झूठ को जोर जोर से बोला जाए तो वो सच बन जाता है।’ मेरे बाहर की आवाजें बहुत तेज़ हैं... ज़ोर ज़ोर से मुझे सज़ा सुनाने का ऐलान किया जा रहा है... मुझे बांधने के लिए सैनिक दौड़ा दिये गए हैं... मैं ट्राय के योद्धा हैक्टर की तरह पुकारा जा रहा हूं... और मेरा सामाना करने के लिए इस बार बहुत से अर्किलस हैं... मेरे लड़ने की कोई मजबूरी नहीं है... मैं कान बंद करके कह सकता हूं कि अर्किलस, मुझे तुम्हारी चुनौती मंजूर नहीं है... चिल्लाकर तुम थक जाओ तो चले जाना... लेकिन मुझे, मेरे चाहने वालों ने उसके सामने धकेल दिया है... मैं बच भी गया तो भी मौत तय है... और मैं अभी मरना नहीं चाहता...
मैं तुम्हें प्रेम करता था... लेकिन इस मेरे और तुम्हारे संबंध को सामाजिक मान्यता के लिए जरूरी था कि तुम्हारे और मेरे, दोनों के पास कुछ नुकीले हथियार होते और पूरे मन से एक दूसरे को चोट करके कुछ राहत देते और उस दर्द में दूसरा दर्द थोड़ी देर के लिए छोटा हो जाता... सच कह रहा हूं... जमाना प्रेम को मान्यता देने में सबसे ज्यादा असहज होता है लेकिन संघर्ष और युद्धगाथाओं को गाने, लिखने और मान्यता देने में हमेशा गर्व करता है... उल्टी बात है ना... मैं तुम्हें प्रेम करता हूं...

मैं भावुक हो रहा हूं... और तुम्हें नहीं बताना चाहता । तुम भावुक होती हो तो मुझे तकलीफ होती है । और इसलिए तुम्हें इतनी तकलीफ देना चाहता हूं कि तुम मुझे लेकर भावुक होना भूल जाओ । तुमने अपनी फोन बुक में मेरा नाम ठीक ही लिखा है ‘निष्ठुर’।

ये मेरी सौगन्ध नहीं थी कि बेड़ियों को तोड़ दिया जाए... न ये कि तुम्हारे साथ आजाद हो जाया जाए... लेकिन कुछ तय करने के लिए हर वक्त सौगन्ध की जरूरत भी तो नहीं थी... मैंने तो बस ये कहा था- मेरे प्रिय प्रेम, हम मिलेंगे जरूर।
मैं तुम्हारे साथ जीना चाहता हूं... मुझे कहा गया है- या तो तुम्हारे लिए मरूं... या तुम्हारे बिना...
मैं जिंदा हूं... समझना कि एक आत्महत्या से मेरा प्राश्चित नहीं होगा... जिंदा हूं... समझना मर रहा हूं...
मुझे मुआफ करना...

- देवेश वशिष्ठ 'खबरी'