30/10/22

तबाही मेरी

डूब गई रौशनाई मेरी

तुम्हें देखनी है तबाही मेरी ?

घर नहीं लौटना तो इतना बता दो

कहां रखी है दवाई मेरी ?

कैसे यकीन दिलाऊं, एक दौर था

होती थी वाहवाही मेरी 

तुम्हारे संग कुछ लिख नहीं पाया

और सूख गई सियाही मेरी 

अब तुम कहो वो ही सच है

कौन मानेगा गवाही मेरी ?

अब लौट भी आओ, क्या फर्क पड़े 

अकेली ही होगी विदाई मेरी 

मेरी तितली के पंखों में धंस गए कांटे

यही फसल थी उगाई मेरी ???

@ देवेश वशिष्ठ खबरी (अक्टूबर 2022, ग्रे.नो.)

25/1/22

डर

डर डर कर और मर मर कर लगे रहो बन घनचक्कर अकर बकर तुम करो फिकर तुम सिर पटको ये संगमरमर कंकर को शंकर समझोगे कूकर को भयंकर समझोगे बेमौत मरोगे तय ही है उल्लू को ईश्वर समझोगे तीर्थंकर उसको बना दिया जिसकी कोई औकात नहीं उसके हंटर से दुम कांपी जिसकी कोई साख नहीं वो अजर अमर तुम झुकी कमर मर जाओ ! या फिर लो टक्कर - देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

सपनों को खा जाने वालों

सपनों को खा जाने वालो
मेहनत को कब्जाने वालो 
हमने अपने हर सपने में 
अपनी जान छुपा रक्खी है
 
तुम आंसू पर रोटी सेको 
हमने आग जला रक्खी है

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

प्रेम के प्रमेय

प्रेम में भी 
सीधी रेखाओं के 
काटने से ही बनता है कोण !
प्रेम की समानांतर रेखाएं भी 
अनंत तक करती हैं मिलने का इंतज़ार ! 
प्रेम की ज्यामिती के त्रिकोण में भी 
हमेशा दो भुजाओं का योग 
तीसरी से बड़ा होता है !
प्रेम की छटपटाती धुरी भी
घेरा ही बनाती है !
फिर भी जाने क्यों 
कभी सिद्ध नहीं हुए 
प्रेम के प्रमेय..?

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

अब क्या मर जाएं ?


और तेरे कितने गीत गाए
अब क्या मर जाएं ?
बच्चों को भूख भी लगती है
ये जाकर किसे बताएं ?
तेरी सलामी में दोहरे हो तो गए
तेरे खेल के मोहरे हो तो गए
तुम्हारी सब कैंची हमीं पर चलीं हैं
और हमीं जयकार लगाएं 
और तेरे कितने गीत गाए
अब क्या मर जाएं ?

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

हवा हवाई


अकड़  के  नहीं  चल रहे हैं
बस हम ठंड से लड़ रहे हैं

कोई अमीरी वमीरी नहीं आई
ये बाल फिकरों में झड़ रहे हैं

कंधे में दर्द था सो झटकी गर्दन
वो खामखां हम पर बिगड़ रहे हैं

न हूर की परियां,  न ज़मीन बाकी हैं
किस बात की खातिर जंग लड़ रहे हैं

दर्द का दरिया न कोई बड़ी कमाई है
सब हवा हवाई हैं जो गीत पढ़ रहे हैं 

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

दरिंदा

ये क्या कम लड़ाई है कि ज़िंदा हूं
ऐ मौत मुझे माफ कर.. शर्मिंदा हूं !

उसे इश्क था मुझसे, बड़े हिसाब का
मुझे कुर्बान होना था, उसका चुनिंदा हूं !

ख़ामोशी से ज़िबह होता, ठीक था 
लेकिन मैं चीख़ उठा, ऐसा दरिंदा हूं 

मेरी गर्दन पर छुरी बस चलने वाली थी 
फिर याद आया मैं पर वाला परिंदा हूं

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

तुम्हारी उदासी







तुम्हारी उदासी बासी लगती है
करवट वाली काशी लगती है
ऐसा लगता है कि मुझे फूंककर
तुम्हें मिली शाबाशी लगती है
तुम्हारी उदासी बासी लगती है

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

डर







जब जब मैं डर जाता हूँ
बड़ा हिम्मतवाला कुछ कर जाता हूं
जब-जब मौत मुकर्रर होती है
मैं जिंदा रहता हूँ न कि मर जाता हूं

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

ज़रूरी है...

शायद अब पीना ज़रूरी है
फटी जेब को सीना ज़रूरी है

सिर्फ दाद मिलना काफी नहीं
शायर का जीना ज़रूरी है

बिना मेहनत कैसे अमीर हुआ वो?
मेरे हर कौर में पसीना ज़रूरी है

घर से दफ़्तर में कट रही उम्र सारी
मंदिर ज़रूरी न मदीना ज़रूरी है

बहुत रोज़ हुए हाथ मिलाए हुए
दोस्त का अब सीना जरूरी है

 - देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

अब सर्दी कब आती है


गैया का कंबल, वो तुलसी का कपड़ा
वो तिल वाली टिक्की, वो गन्ने की राव 
वो टोपे, वो स्वेटर, वो बाबा की गोदी
वो उपले, सरकंडे, शकरकंदी के अलाव
बनिया की दुकानें, मूंफली वाली तानें
वो रुपया, अठन्नी, चवन्नी के हिसाब
अब बस ठिठुरन लाती है
अब सर्दी कब आती है ?

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

ख़ून

चल तूने ये सुकून दे दिया 
मुझे भी जंगी जुनून दे दिया

जो नासूर बन गए कुरेदकर
सहलाने को नाखून दे दिया

मैं कभी थाने तक गया नहीं
तूने मेरे हाथ कानून दे दिया

तूने तो आज़ादी भी नहीं दी
और मैंने अपना खून दे दिया

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

इश्क के दूजे दर्जे में


हम इश्क के दूजे दर्जे में
बस जैसे-तैसे पास हुए 
धीरे-धीरे लिखते-रटते
पूरे सब अभ्यास हुए !

पर वो जो आला नंबर थे
जो इंसा नहीं कलंदर थे
जब पूछा उनसे कैसे हैं ?
वो सब भी हम जैसे हैं ।

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

24/1/22

घाव


तुमने कुरेदा भी वहीं जहां घाव था 
मैं मंजिल नहीं बस एक पड़ाव था

जिसे ज़िंदगी समझा सब लुटा दिया
मैं उसके लिए सिर्फ एक दांव था !

फिर भी डूब गया वो किनारे न लगा 
जिसके लिए मैं कागज था, नाव था !

उसे बचाने में मुझे फिर डूबना पड़ा
पुराना इश्क था, बिल्कुल शराब था

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

होठों के प्रेम-प्रपंचों से


होठों के प्रेम-प्रपंचों पर
कितने कागज़ बर्बाद किए 
कितनी रातें नीदें जागीं
कितने आंसू आबाद किए ?

तब काश कलम को कह देता
बस आंसू लिखना अच्छा है
बाकी दुनिया में झूठ भरा
आंख का पानी सच्चा है

-देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

#ख़बरी #नई_वाली_हिंदी

बहाने


ये दुनिया रंगीन बहुत है
पर रंगीनियां महंगी बहुत हैं

मेरी नौकरी है मतलब भर की
और घर की ज़रुरत बहुत है

ये पहाड़ ये नदियां,समंदर-वमंदर
जाना तो है पर सर्दी बहुत है

- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'

#ख़बरी   #नई_वाली_हिंदी