ये क्या कम लड़ाई है कि ज़िंदा हूँ?
ऐ मौत, मुझे माफ़ कर — शर्मिंदा हूँ।
उसे इश्क़ था मुझसे — बड़े हिसाब का,
मुझे कुर्बान होना था... उसका चुनिंदा हूँ।
ख़ामोशी से ज़िबह होता — ठीक था,
लेकिन मैं चीख़ उठा... ऐसा दरिंदा हूँ।
मेरी गर्दन पर छुरी बस चलने वाली थी —
फिर याद आया... 'पर' हैं, परिंदा हूँ।
वो कहके गया — "तू मेरे लायक नहीं",
और मैं सोचता रह गया — कितना गंदा हूँ।
मैं खुद अपनी सज़ा सुन के चौंक गया,
जुर्म बस इतना था — कि ज़रा ज़िंदा हूँ।
भरोसे की तरह टूटा — मगर मुस्काया,
वो समझा जंग हार गया — पर मैं ज़िंदा हूँ।
जो टूटे हुए आइनों से प्यार करता है,
उसी के हाथ में हूँ — अब तक साबिंदा हूँ।
- देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'
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