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देव की नई नई नौकरी लगी थी... दिल्ली की तंग दिली से निकलकर देहरादून की वादियों के बीच जा रहा था... ये भी एक सफर था, जो जारी था... हाथ में किताब थी... महाश्वेता देवी की हज़ार चौरासीवें की मां... पहले चार पन्ने पढ़कर ही मन खराब हो गया... इसलिए नहीं कि किताब खोटी थी... इसलिए कि चार पन्ने ही इतना असर कर गए कि बाकी पढ़ने की हिम्मत नहीं बची... बस का लम्बा सफर भी उबाऊ था... मोबाइल के एफ एम में कुछ किलोमीटर पहले तक दिल्ली और मेरठ से आ रहे रेडियो स्टेशनों के गाने साफ साफ सुनाई दे रहे थे... रात थी... बाहर का कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था... जब इंसान माहौल से न जुड़ पाए तो ऊब होती है... और इस से निज़ात पाने का तरीका है कि या तो पूरी तरह माहौल में रम जाओ... या पूरी तरह अपने में खो जाओ... और कोई तरकीब नहीं है बचे रहने की... हां एक और है... सो जाओ... देव ने सोने की कोशिश की... पर न जाने किन ऊबड़ खाबड़ रास्तों से गुजर रही थी बस... ऐसे में कहीं नींद आती है... पहली जनवरी थी... ठंड थी... और इसीलिए बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी... वैसे भी मैदानी लोगों को तो पहाड़ियां और वादियां गर्मियों में ही याद आती हैं... भरी सर्द रात में कोई मसूरी का रुक कोई क्यों करे... पर नौकरी का मोह और मजबूरी जो न करवा दे कम है... मेरठ और देहरादून के बीच एक रेस्तरां है चीतल... सफर करती ज्यादातर बसों के ब्रेक यहीं लगते हैं... बस रुकी... रात के कोई दो बजे थे... मुंह से धुंआ निकल रहा था... एक ऊनी शॉल लेकर चला था घर से... देव ने शॉल पहले नेहरू स्टाइल में कंधे से कमर की ओर लपेटी... ठंड ठिठुराने लगी... तो सर ढंकते हुए शॉल में लगभग दुबक सा गया... अब स्टोरी में क्लाइमेक्स आ रहा है... यही जगह है जब कहानी ध्यान से पढ़ी जाय... उससे पहले से अगर आप ध्यान लगा रहे हैं तो ये आपकी श्रृद्धा है, पर इतनी बात तो आपको वैसे भी समझ आ जाती, जो सरसरी पढ़ जाते... खैर... हुआ यूं कि इधर देव की बस चीतल पर लगी... उधर इंदू की बस भी वहीं आराम कर रही थी... ये वो वक्त है जब देव पहली बार इंदू को देखेगा... और यहीं से इंदू के बिट्टू बनने की कहानी लिखी जाएगी... यूं तो देव को भूख जोरों की लगी थी... पर ऐसी गजब ठंड में अगर किसी चीज़ की जरूरत और तलब लगी तो वो थी... एक गर्मागरम चाय की प्याली... कहानी से हटकर मैं आपको एक जानकारी दे दूं... अगर कभी देहरादून की तरफ जाना हो तो चीतल रेस्त्रां पर ज़रूर रुकें... और रुकें तो वहां चाय का ज़ायका ज़रूर लें... ये मेरा व्यक्तिगत अनुभव है... चीतल की चाय बड़ी मज़ेदार होती है... इसलिए बाकी काउंटर भले खाली पड़े रहें... इस सरकारी ढाबे के चाय के काउंटर से चाय लाइन लगाकर ही मिलती है... उस वक्त चीतल पर कोई चार पांच बसें रुकी थी... कहने का मतलब ये है कि भीड़ बहुत थी... और ठंड इतनी ज्यादा थी तो आज चाय का काउंटर कैसे खाली होता... देव भी लाइन में लग गया... आप ज़रा अनुभव कर कर देखे... जबर्दस्त ठंडी रात हो, सफर का माहौल हो... और चाय की तलब लग उठे... ऐसे में इंतज़ार कहां होता... वो भी लाइन लगाकर... खैर देव इंतजार कर रहा था... अपनी बारी का... बस आधे घंटे के लिए रूकी थी... अगर इतनी ठंड में आपको आधे घंटे के लिए रात के ढाई बजे खुले जंगल में बने जंगल में रेस्त्रां छोड़ दिया जाय तो पता चलेगा कि कितने आधा घंटा कितने घंटों का होता है... पर यहां ये वक्त सिर्फ एक चाय का कूपन भर लेने में ही गुज़र गया... बारी आई... देव काउंटर तक पहुंचा... पैसे दिये... पर यहां जो कुछ हुआ उससे ठंड में भी माहौल गर्म कर दिया... लाइन से हटकर एक लड़की ने लपककर... काउंटर बॉय से कूपन छीना, और काउंटर पर पैसे रखते हुए थैंक्यू भैया कहकर निकल गई... देव इस हरकत पह पहले पहल तो हक्का बक्का सा रह गया... पर जब उसे बस का हार्न सुनाई दिया तो अपने गुस्से को वो काबू में नहीं रख पाया... दांत पीसता हुआ वो उस बदतमीज़ लड़की के पास पहुंचा और इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता एक जोरदार थप्पड़ लड़की के कान पर रसीद हो चुका था... थप्पड़ मारने के बाद देव सकपका भी गया... गुस्सा जो न करवा दे... गुस्से में आदमी कुछ सोच कहां पाता है... बस कर जाता है... मैंने आज तक यही नसीहतें पढ़ी सुनी है कि गुस्से पर काबू रखना चाहिए... या गुस्से में आदमी पर शैतानियत हावी हो जाती है... लेकिन देव के सर पर हावी हुआ शैतान तुरंत भाग भी गया... सच कहूं तो अचानक हुई हरकत के बाद देव डर गया था... ज़रा सोचिए, सरेआम... पब्लिक प्लेस पर कोई लड़का किसी लड़की को थप्पड़ मार दे... उस लड़की के घरवाले... मौजूद लोग क्या उसे छोड़ देंगे... थप्पड़ उस लड़की को पड़ा और देव सन्न रह गया... इस सर्द रात में अपने पिटने का यकीन कर देव को पब्लिक के तुरत रिएक्शन का इंतज़ार था... और रिएक्शन हुआ भी... भीड़ में पहले तो एक ज़ोरदार ठहाका गूंजा... फिर खुसुरपुसुर शुरू हो गई... कोई सामने नहीं आया... न भीड़ से... न लड़की के घर से कोई... लड़की के हाथ से चाय का कूपन छूटकर गिर गया... आंखों से दो बूंद भी... उसने एक नज़र देव को देखा... जैसे इसके बाद भी सॉरी कह रही हो... जैसे पुराना गाना बज उठा हो... गुस्से में जो निखरा है उस हुस्न का क्या कहना... कुछ देर अभी हमसे तुम यूँ ही ख़फ़ा रहना... गाड़ी का हॉर्न फिर बजा... एक मिनट भैया... वो ज़ोर से चिल्लाई और बस की तरफ भाग गई... देव की बस अब भी वहीं खड़ी थी... बिना मुसाफिरों के... ठंड... चाय की तलब... सब गायब हो गई थी... अब बस कुछ बचा था... तो मलाल... रास्ता भर... वैसे मलाल और भी ज्यादा होता अगर उसे ये पता होता कि जिस लड़की को उसने थप्पड़ मारा है उसका बाप कल ही मरा है और वो उसे ही आखरी बार देखने जा रही थी...
जारी है...
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852336
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achha prvaah hai.padhkar maja aa gaya ,cheetal mai bhi ruka hun kai baar isliye kuch jani pahchani si lagi...likhte rahiye.....
जवाब देंहटाएंप्रवाहमय लेखन है, जारी रहिये. अगली कड़ी का इन्तजार है.
जवाब देंहटाएंअगली किस्त का इंतज़ार रहेगा.
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है.
quiet intresting .......
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