26/5/08
पेन की स्याही, सूखी तो समझ आया...
प्यासा छोड़ कर
एक बार फिर
थम गई बारिश
और बेचारा संमदर.. बह गया सब...
रातभर की नींद को,
गिरवी रखा है...
और दिन की चांदनी को पी गया रब...
फिर मिलेगी तंग छुट्टी,
घूम आऊंगा...
दूर... बहुत दूर... वहीं पर रह गया सब...
ज्यों नुकीली बालियां
गेहूं की, सोने की...
टकटकी में ही रहा... और कट गया सब...
मां का, पिताजी का,
बहनों- दोस्तों का
ना पता ये सारा हिस्सा... छंट गया कब...
पेन की स्याही सूखी
तो समझ आया...
स्याह सा एक दौर था... और खप गया सब...
दूर सीसा था...
और बीच में बादल
रोशनी जब ना रही तो... छंट गया सब...
किताब तूने दी मुझे
दर्दों के गीतों की...
तोहफा था पहला इसलिये यूं रट गया सब
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9811852337
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देवेश भाई गुलज़ार को याद करते हुए एक बात कहना चाहता हू...जिस तरह से गुलज़ार की आवाज़ में शब्द जिंदा हो जाते हैं..बेजान चीज़े करवटे लेने लगती है...कुछ कुछ वैसी ही तासीर आपके लिखे में भी है..एक बेहतरीन कविता के लिए शुक्रिया..खुदा आपके ख्यालों को और ज्यादा ताकत बख्शे..आपका सुबोध
जवाब देंहटाएंसुन्दर... बहुत दिनों बाद पढ़ा आपको, अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है ....बधाई.....
जवाब देंहटाएंकिताब तूने दी मुझे
जवाब देंहटाएंदर्दों के गीतों की...
तोहफा था पहला इसलिये यूं रट गया सब
-एक अच्छी रचना, बधाई.