18/8/08

राधा कैसे न जले- 9

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ये ढलान है. दूसरी निगाह से देखो तो चढ़ाई भी कह सकते हो. दो रास्ते हैं और दोनों की ओर निगाहें भी लगी हैं. देव को लौटना है. बिट्टू को भी. देव अभी देहरादून जाएगा और फिर वहां से दिल्ली. बिट्टू वापस मसूरी चली जाएगी. भट्टा फॉल के ऊपर चाय की दुकान पर बैठे बैठे सुस्ती आने लगी है. यहां से मसूरी 10 किलोमीटर ऊपर है और दून कोई 20 किलोमीटर नीचे. एक ही रास्ते से दो अलग अलग बसें आएंगी. एक जाने के लिए आएगी और दूसरी आने कि लिए यहां से जाएगी. बातों में दिखने जैसा कोई घुमाव फिराव नहीं है. हाथ छूट रहे हैं. आंखें थोड़ी देर पहले तक गीली थीं. अब सूख गई हैं. चाय एक बार फिर ठंडी हो गई है, बस का बेसब्र इंतजार बता रहा है कि दोनों को जल्दी है कि हाथ कब छूटे. नहीं यहां मैं गलत लिख गया. हाथ पकड़े रखने की कोई जोर जबर्दस्ती नहीं है पर वास्ता इतना नया भी नहीं कि झटके से छूट जाए. एक ओर ऊंचाई है तो दूसरी ओर गर्त. और मजबूरी ऐसी कि जाना होगा. ऊंचाई की तरफ भी और घुमावदार गहराई में भी बैचेनी है. पर बस है कि आ ही नहीं रही. देव को आज वो दिन याद नहीं आ रहे हैं जब हर शनिवार की शाम को देहरादून रेलवे स्टेशन के बाहर से मसूरी जाने वाली बस में बिट्टू को बैठाता था और तब तक इंतजार करता जब तक बस किसी मोड़ तक जाकर ओझल न हो जाती. यूं तो वहां से टैक्सी भी जाती थीं मसूरी के लिए. लेकिन टैक्सी पर उसे भरोसा नहीं था. अगर मजबूरी में कभी टैक्सी से जाना भी पड़ता तो कई बार ऐसा हुआ था कि वो बिट्टू के साथ खुद मसूरी तक गया और फिर स्याह रात में आखिरी लौटती बस से देहरादून लौटकर आता. घुमावों पर कहीं बिट्टू का जी न मिचलाने लगे इसलिए जेब में ठेर सारी क्लोरोमिंट लेकर जाता. घंटे भर के छोटे से सफर से पहले घंटे भर तक नुक्ताचीनी चलती. हिदायतों का सिलसिला चलता. लेकिन आज खामोशी थी. देव दिल्ली जा रहा था. हमेशा के लिए. होठों से कुछ निकलते नहीं बन रहा था. घबराहट बाहर निकल निकल कर थक चुकी थी. सारी औपचारिकताएं हो गईं थीं. देहरादून से मसूरी जाने के लिए दो बसें मिलती थीं, एक मसूरी की लाइब्रेरी तक जाती थी तो दूसरी पहाड़ी के दूसरी ओर पिक्चर पैलेस तक. बिट्टू को इसी बस का इंतजार होता था. मसूरी का एकमात्र पिक्चर हॉल तो बंद हो चुका था लेकिन उसके नाम पर चौक और बस अड्डे का नाम पिक्चर पैलेस पड़ गया था. बस की सड़क के घुमाव से उतरती बस की आवाज आई. बिट्टू की आंखों में ठहरे से आंसू अचानक छलक गए. जैसे अचानक लबालब कटोरे की ज़मीन हिल गई हो. ‘देव, तुम्हारी बस आ गई.’ खामोशी टूटी. निगाहें फिर मिलीं. बस मिलाने की हिम्मत नहीं हुई. ‘हां’, चलता हूं, तुम कैसे जाओगी? आज पहली बार ये सवाल देव ने बिट्टू से पूछा था. आज से पहले कभी नहीं हुआ कि देव को छोड़ने से पहले देव ने जाने की बात की हो. बिट्टू ने देव के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, तुम चले जाओ देव, मैं मैनेज कर लूंगी. बिट्टू ने देव के माथे को झांकते हुए से कहा. ‘नहीं, तुम्हारी बस आ जाने दो. मैं बाद में चला जाऊंगा.’ देव का मन नहीं माना. खैर ये भी नुक्ताचीनी ही थी. पर वैसी नहीं जैसी रोज होती थी. थोड़ी देर बाद बिट्टू की बस आ गई और उसके थोड़ी देर बाद देव की. उस रोज़, उस वक्त क्या हुआ, ये बताया नहीं जा सकता इसलिए मैं भी नहीं बता रहा. पर बिट्टू ने चलते चलते बस एक बात कहीं, देव अब जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा. उस दिन देव की आंखें और गला एक साथ पहली बार भरा था, वो पहला दिन था जब उसका दिलेर होने का ढ़ोंग काम नहीं आया. बस में बैठते ही वो फफक पड़ा. दो बसें दो दिशाओं में जा रहीं थीं. कुछ ही देर में दूरियां काफी बढ़ गईं थीं.
जारी है...
देवेश वशिष्ठ ‘खबरी’

9811852336

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