रोज़ बदलता हूं कम्प्यूटर के डेस्टोप से चेहरा अपना
औऱ पीछा छुड़ा लेता हूं तुझ से...
रोज़ लिखता हूं एक खत तुझे याद कर...
रोज़ गांठता हूं दोस्ती नए लोगों से...
और रोज़ भूल जाता हूं तुझे...
इस कदर कि तुम फिर याद नहीं आती...
जब तक मैं अगले दिन फिर न भुला दूं तुम्हें...
यकीन न आये तो देख जाना...
तुम आना कभी मेमना लेकर... पहाड़ों से...
पेड़ की उलझी डाल से झांककर ढूढ़ना मुझे...
और पूछना मेरा हाल...
वैसे मुझे तो तुमने भी भुला दिया होगा ना अब तक...
देवेश वशिष्ठ खबरी
9811852336
वाह क्या बात है.
जवाब देंहटाएंबंधु कहां हो आजकल....इतने समय बाद.
क्या बात है भाई. बहुत खूबसूरत.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया.
जवाब देंहटाएंका भई, आजकल नींद पूरी नहीं हो पा रही क्या? स्वस्थ हालत में तो इतनी अच्छी कविता मुमकिन नहीं...
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