7/7/25

क़ातिल का फ़रमान चला है

क़ातिल का फ़रमान चला है,
दहशत का अरमान चला है।

मंदिर से जो हिला नहीं था,
वो लँगड़ा भगवान चला है।

चार चवन्नी हाथ में दे दीं,
जीवन भर ‘एहसान’ चला है।

कौआ लेकर उड़ता जाता,

पीछे-पीछे ‘कान’ चला है।

हरकारे की हाँक शून्य कर,
देखो — तीर-कमान चला है।

देख गुलामी छोड़ के तेरी,
आगे अब सम्मान चला है।

देवेश वशिष्ठ 'ख़बरी'