31/3/07

अब तो डर भी नहीं

तुझसे जब मेरी कोई बात चलती है,

तू मुझे मुझसे भी बेहतर समझती है!

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दर्द ओ गम पर,मैं मरहम लगाता गया।

तू सुनती रही,गुनगुनाता गया।

मुझको नाजुक सी खुशियाँ,हमेशा से थीं.

मैं ही उन पर, परदे लगाता गया।

चूमकर जो चखा,तेरे नूर को,

जितना तैरा मैं उतना समाता गया।

तेरी दौलत, मुहब्बत की बरसात है।

मुस्कुराते लवों पर क्या बात है ?

मुझको कह दे,जो कुछ है दिल में चला।

कहीं फिर ये मौसम,चला जाये ना।

मेरी हर छुअन,अब अमानत तेरी,

पास आ करवटों में समाता गया।

इस उनींदी पलक में है कोई बसा,

मुस्कुराहट में भी होता है नशा।

ये बातें, ये रातें,बडी हैं नयी,

अब तो डर भी नहीं खोने का कहीं,

बिन कहे मैं कहानी सुनाता गया।

तू सुनती रही,गुनगुनाता गया।

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देवेश वशिष्ठ 'खबरी'

9410361798

30/3/07

......श्री कृष्णम् समर्पयामी।


मैं,
मेरी सोच,

मेरे खयाल,
जीया हुआ हर दिन,
काटे गये महीने,
और बितायी हर साल।
हर हद तक गया अनुराग,
परिपक्वता,
और फिर चुंबक के एक से छोरों सा वैराग।
मेरा सारा आलस, सारे काम,
मेरे से टूटा और जुङा हर नाम,
कूट-कूट कर भरे व्यसन, वासना, दुर्विचार,
मेरा अहंकार,
हर दिन की जीत ,
हर रोज़ की हार,
मेरा प्रेम,
समर्पण,
मेरा जुङाव और भटकाव,
टूटन, तडपन खुद का चिंतन,
कंठ तक भरा रीतापन,
मजे में डूबी हर एक बात,
मुझे उठाने और गिराने मैं लगे सैंकङों हाथ,
उसकी नफरत, मेरा प्यार,
हर अनुभव, हर चोट, हर मार,
सारी प्राप्तियाँ, सारे आनंद, सारे सुकून,
मुझसे जुडा हर काला, सफेद, तोतई और मरुन,
मेरी सारी ताकत,
सारी खामी,
.....श्री कृष्णम् समर्पयामी।
देवेश वशिष्ठ ' खबरी '

9410361798

कहाँ सांझ है ?कहाँ सवेरा ?

चुप है मन,
थकियारा तन,
चुपचाप चला जाता जीवन॰॰
कम होता है,
धीरे-धीरे
साँसों का चलता घर्षण।

कैसा सुख?
फिर कैसा दुःख ?
उदासीनता का आँचल।
कहाँ सांझ है ?
कहाँ सवेरा ?
आ बैठा है अस्ताचल।

चलता हूँ,
रुक जाता हूँ,
मुडकर देखूँ क्या पीछे... ?
शायद कोई छूट गया है,
मिटकर भावों के नीचे।

लेकिन दिखता नहीं कहीं कुछ,
दूर-दूर तक उडती धूल,
चेहरा मेरा खिला कहाँ है?
कहाँ खिले दिल में
दो शूल?

बतलाओगे कैसा सूखा ?
कैसी होती है कलकल ?
मैंने कब का ओढ लिया है
उदासीनता का आँचल।

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

29/3/07

होली वाटर

हर प्रतिमा का चरणामृत,
गुरुद्वारे का अमृत,
मस्जिद की आबोहयात,
और बडे वाले गिरजे का,
होली वाटर।
॰॰॰कुछ नहीं चखा मैंने।
पर वो दिन याद है
॰॰॰गुनगुना पानी लायीं थी तुम।
...जानू सर्दी हो गयी है तुम्हैं,
ठंडा पानी मत पीना,
प्लीज..
और खूब खयाल रखना अपना।
और मैं पागल,
बोला,
तुम हो ना,
मेरा खयाल रखने को।
अब पानी फीका लगता है,
बेरंगा॰॰॰बेस्वाद॰॰॰
पर वो दिन याद हैं,
जब पानी रंगीन हो जाता था,
तुम्हैं छूकर।
अब मेरे गाल का वो पिंपल ठीक हो गया है,
जुकाम भी नहीं है,
मौसम भी गरम है।
तुम आज भी मेरा खयाल रखती हो,
पर क्या जाना जरूरी था?
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

मुझे यकीन है,

मुझे यकीन है,
एक दिन आएगा उसका खत,
बजेगी घन्टी मेरे मोबाइल की,
या फिर स्कैप

औरकुट पर॰॰॰॰

या फिर कहेगी

अपने दिल की बात,
अपने किसी दोस्त को,
और चुपचाप बता देगा वो मुझे,
शायद...।

एक दिन डाँटेगी वो मुझे,
कितने सुस्त हो,
॰॰॰ पागल। मेरी तरह।
और तब डबडब आखों में

ढूँढ लूँगा मैं खुद को।
एक दिन बुलायेगी वो मुझको,
बस करो॰॰॰ मैं समझती हूँ।
पर क्या सब कुछ कहना जरुरी होता है॰॰?
उसका नाज़ुक और पसीजा़ हुआ हाथ,
रख लूँगा दिल पर,
तब रोउँगा थोडी देर॰॰॰॰ उसकी गोद मैं।

वो आये, न आये,
उसका खत जरुर आयेगा एक दिन,
ऑरकुट पर॰॰॰
या फोन पर,
या॰॰॰
मुझे यकीन है।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

॰॰॰॰ अब खुश हूँ ।

अब खुश हूँ ।
अब तक सब कुछ एकतरफा था॰॰॰
अब भी है॰॰॰
पर सुबह तुम्हारा सपना आया,
सुबह-सुबह॰॰॰॰।
घर में मेरी मम्मी है॰॰॰
मैं हूँ॰॰॰
तुम भी हो ।
वैसी ही जैसी तब थी।
वही पीली और लाल सलवार,
और दूध से कुछ साफ तुम॰॰॰॰
॰॰॰॰मुझे पता है, रूठ गयी थी।
॰॰॰॰॰मुझे पता है, गलती थी।
सच मानो अब भी मेरे पुराने दोस्त फोन करते हैं,
और पूछते हैं,
॰॰॰कैसी है तेरी इन्सपरेशन ?
नये दोस्त भी जानते हैं तुम्हें।
तुम्हारी तस्वीर देखी है उन्होंने कम्प्यूटर के डेस्टोप पर॰॰॰
पूछते हैं कहाँ है?॰॰॰ कौन है ?
मैं मुस्काता हूँ, और विजयी भाव से कहता हूँ,
ये है मेरा पहला प्यार।
जिसकी यादों ने कभी परेशान नहीं किया।
हर वक्त याद रहती है ये मेरी इन्सपरेशन बनकर॰॰॰
ये मेरा पहला प्यार है, एकतरफा।
पर आज सुबह-सुबह तुम आयीं थीं,
कुछ कहने॰॰॰
॰॰॰॰ अब खुश हूँ ।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

यहीं कहीं..

शहर शहर का मैं वाशिंदा,
हर मन तक मेरी भटकन
मेरा मीत छिपा बैठा है,
जैसे यहीं कहीं।
अपना सर मेरे काँधे पर,
रखकर जो सो जाये,
मेरे साथ-साथ जो चलकर,
सूरज को ले आये।
जिसको गले लगाकर फिर मैं,
ताकतवर बन जाऊँ,
जिसकी हर बिछुडन से घटकर,
और बडा हो जाऊँ।
साँसें वो हिम्मत दें मुझको,
मेरा साहिल यहीं कहीं,
मेरा मीत छिपा बैठा है,
जैसे यहीं कहीं।
जिसकी बातें मुझको मुझसे,
और दूर ले जायें,
जिसकी यादें आऐं गुपचुप,
और गीत बन जायें.
जो कह दे कि उड सकते हो,
और पंख ले आऊँ।
जो रोके,
बस गिर जाओगे,
और रुकूँ,
थम जाऊँ।
जैसे कोई बोले दौडो,
मंजिल फिरती यहीं कहीं,
मेरा मीत छिपा बैठा है
जैसे यहीं कहीं।
जो मेरे अनगिन पापों से
पुण्य चुरा ले आये,
जो मुझको मेरी नजरों से,
देखे, फिर मुसकाये,
मुझको साहिल से समझौता
नहीं है करना आता,
साहिल से भी दूर तक
जो साथ निभाये,
जिसके साथ मुझे चलने पर
फक्र लगे दुनिया वालो,
ऐसी दुनिया दिखती जैसे
सजी हुई है यहीं कहीं
मेरा मीत छिपा बैठा है
जैसे यहीं कहीं।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

मैं धीरे धीरे ऊपर आउँगा

सबर करो,
मैं धीरे धीरे ऊपर आउँगा।
धीरे धीरे,
पायदान मैं, चढता जाऊँगा।
नीचे वाली सीढी पर हूँ,
पर मत घबराओ,
दौडने वालों की हाँफन से पहले आउँगा।
सबर करो मैं धीरे धीरे ऊपर आउँगा।
मीत मेरे तुम मत रुकना पर,
मैं कुछ धीमा हूँ।
दौड तुम्हारी तुम्हैं थका दे,
तब मैं आऊँगा।
अपनी गोद में तुम्हैं उठाकर,
फिर बढ जाऊँगा।
मेरा साथ ना देना चाहो,
कोई जोर नहीं।
मंजिल तक पर तुम्हैं साधकर,
मैं ले जाऊँगा,
लेकिन मुझको मंजिल से भी आगे जाना है,
साथ तुम्हारे चलूँगा,
या फिर तन्हा जाऊँगा।
सबर करो मैं धीरे धीरे ऊपर आउँगा।
देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798

मजा आने लगा है।

इतना बदल लिया है
खुद को ऐ जिन्दगी,
अब तो अकेलेपन में
मजा आने लगा है।


आँसू दफन के दिल में
इतना घुटा हूँ मैं,
अब दर्द की शिकन में
मजा आने लगा है।


वो सब रहैं सलामत,
जो थे कभी करीबी,
अब उनसे दूरियों में
मजा आने लगा है।

जानता हूँ मंजिल
मेरे लिये रुकी है,
रुखों की बेरुखी में,
मजा आने लगा है।

देवेश वशिष्ठ ' खबरी '
9410361798

खूब डाँटा आज,

खूब डाँटा आज,
यादों को,
बेवक्त यादों को।
वक्त- बेवक्त, हर वक्त क्यों चली आती हो तुम ?
लावारिस सी।
मैं तुम्हारी तरह फालतू नही हूँ,
काम करना है ढेर सारा,
पैसे का जुगाढ़ करना है,
शोहरत घसीट कर लानी है,॰॰॰ पैरों तक।
पर तुम हो कि पीछा ही नहीं छोङती।
रोज दुत्कार देता हूँ तुम्हैं,
लंच के बाद जब बाँस की 'क्विक' और 'हरी' की आवाजें आती हैं।
भाग जाने को कहता हूँ तुमको,
जब मेरा सबसे अजीज़ दोस्त मुझे घुटता है।
चंद सिक्के ज्यादा कमा लेता है मुझसे ॰॰॰
इस दोस्त से लड़ना है।
फिर दिल्ली से॰॰॰
फिर दुनिया से॰॰॰
तुम तो फालतू हो ॰॰॰
बेकाम की।
कभी उसके पास भी जाया करो॰॰॰,
जिसकी ढेर सारी तस्वीरें एक साथ मेरे सिराहने रख देती हो,
और फिर रात भर॰॰॰
खीज आती है तुम्हारी इन हरकतों पर।
भागो यहाँ से , मुझे सोना है॰॰।
जाओ उसके पास॰॰
दिखाओ उसे भी एक-आध तस्वीर मेरी धुँधली सी॰॰॰
'गयी थी॰॰'
याद बोली।
'पर उसने ॰॰खूब डाँटा आज'।
देवेश वशिष्ठ'खबरी'
9410361798

शायद चंदन की लकडी़ से तुम्हैं बनाया है।

चुन चुन कर नग
किस शिल्पी ने
तुम्हैं सजाया है।
शायद
चंदन की लकडी़ से
तुम्हैं बनाया है।
हवा बसंती
ठहर गयी है
तुम्हारे होठों पर ,
या फिर
सावन की मस्ती ने
तुम्हैं बुलाया है ?
गंगा में अर्पित पुष्पों सा
है मेरा जीवन,
श्रृध्दा ने ले
रंग सुनहरा
रुप बनाया है।
शीशे जैसे मन में दिखते
पावन कुछ बंधन,
या फिर बादल ने घूँघट में
चाँद छिपाया है।

देवेश वशिष्ठ 'खबरी'
9410361798